हमें दोनों जहाँ में है सहारा ग़ौस-ए-आ’ज़म का’मुरीदी ला-तख़फ़’ कह कर तसल्ली दी ग़ुलामों को
क़यामत तक रहे बे-ख़ौफ बंदा ग़ौस-ए-आ’ज़म का
हमारी लाज किस के हाथ है ! बग़दाद वाले के
मुसीबत टाल देना काम किस का ! ग़ौस-ए-आ’ज़म का
गए इक वक़्त में सत्तर मुरीदों के यहाँ हज़रत
समझ में आ नहीं सकता मु’अम्मा ग़ौस-ए-आ’ज़म का
मुहम्मद का रसूलों में है जैसे मर्तबा आ’ला
है अफ़ज़ल औलिया में यूँ ही रुत्बा ग़ौस-ए-आ’ज़म का
‘अज़ीज़ो ! कर चुको तय्यार जब मेरे जनाज़े को
तो लिख देना कफ़न पर नाम-ए-वाला ग़ौस-ए-आ’ज़म का
लहद में जब फ़रिश्ते मुझ से पूछेंगे तो कह दूँगा
तरीक़ा क़ादरी हूँ, नाम लेवा ग़ौस-ए-आ’ज़म का
निदा देगा मुनादी हश्र में यूँ क़ादरियों को
कहाँ हैं क़ादरी ? कर लें नज़ारा ग़ौस-ए-आ’ज़म का
फ़रिश्तो ! रोकते क्यूँ हो मुझे जन्नत में जाने से
ये देखो हाथ में दामन है किस का ! ग़ौस-ए-आ’ज़म का
जनाब-ए-ग़ौस दूल्हा और बराती औलिया होंगे
मज़ा दिखलाएगा महशर में सेहरा ग़ौस-ए-आ’ज़म का
मुख़ालिफ़ क्या करे मेरा कि है बे-हद करम मुझ पर
ख़ुदा का, रहमतुल-लिल-‘आलमीं का, ग़ौस-ए-आ’ज़म का
कभी क़दमों पे लौटूँगा, कभी दामन पे मचलूँगा
बता दूँगा कि यूँ छुटता है बंदा ग़ौस-ए-आ’ज़म का
जमील-ए-क़ादरी ! सौ जाँ से हो क़ुर्बान मुर्शिद पर
बनाया जिस ने तुझ जैसे को बंदा ग़ौस-ए-आ’ज़म का