Ahmad Faraz Ghazal Lyrics

 

 

ख़ानाबदोश अहमद फ़राज़

हर्फ़े-ताज़ा की तरह क़िस्स-ए-पारीना कहूँ

हर्फ़े-ताज़ा की तरह क़िस्स-ए-पारीना कहूँ

कल की तारीख़ को मैं आज का आईना कहूँ

चश्मे-साफ़ी से छलकती है मये-जाँ तलबी

सब इसे ज़हर कहें मैं इसे नौशीना कहूँ

मैं कहूँ जुरअते-इज़हार हुसैनीय्यत है

मेरे यारों का ये कहना है कि ये भी न कहूँ

मैं तो जन्नत को भी जानाँ का शबिस्ताँ जानूँ

मैं तो दोज़ख़ को भी आतिशकद-ए-सीना कहूँ

ऐ ग़मे-इश्क़ सलामत तेरी साबितक़दमी

ऐ ग़मे-यार तुझे हमदमे-दैरीना कहूँ

इश्क़ की राह में जो कोहे-गराँ आता है

लोग दीवार कहें मैं तो उसे ज़ीना कहूँ

सब जिसे ताज़ा मुहब्बत का नशा कहते हैं

मैं ‘फ़राज़’ उस को ख़ुमारे-मये-दोशीना कहूँ

(क़िस्स-ए-पारीना=पुराना क़िस्सा, नौशीना=शर्बत,

शबिस्ताँ=शयनागार, आतिशकद-ए-सीना=छाती की

भट्ठी, हमदमे-दैरीना=पुराना मित्र, कोहे-गराँ=मुश्किल

पहाड़, ख़ुमारे-मये-दोशीना = ग़ुजरी रात की शराब

का ख़ुमार)

 

न कोई ख़्वाब न ताबीर ऐ मेरे मालिक

न कोई ख़्वाब न ताबीर ऐ मेरे मालिक

मुझे बता मेरी तक़सीर ऐ मेरे मालिक

न वक़्त है मेरे बस में न दिल पे क़ाबू है

है कौन किसका इनागीर ऐ मेरे मालिक

उदासियों का है मौसम तमाम बस्ती पर

बस एक मैं नहीं दिलगीर ऐ मेरे मालिक

सभी असीर हैं फिर भी अगरचे देखने हैं

है कोई तौक़ न ज़ंजीर ऐ मेरे मालिक

सो बार बार उजड़ने से ये हुआ है कि अब

रही न हसरत-ए-तामीर ऐ मेरे मालिक

मुझे बता तो सही मेहरो-माह किसके हैं

ज़मीं तो है मेरी जागीर ऐ मेरे मालिक

‘फ़राज़’ तुझसे है ख़ुश और न तू ‘फ़राज़’ से है

सो बात हो गई गंभीर ऐ मेरे मालिक

(इनागीर=लगाम थामने वाला, तौक़=गले में डाली

जाने वाली कड़ी)

 

तेरा क़ुर्ब था कि फ़िराक़ था वही तेरी जलवागरी रही

तेरा क़ुर्ब था कि फ़िराक़ था वही तेरी जलवागरी रही

कि जो रौशनी तेरे जिस्म की थी मेरे बदन में भरी रही

तेरे शहर से मैं चला था जब जो कोई भी साथ न था मेरे

तो मैं किससे महवे-कलाम था ? तो ये किसकी हमसफ़री रही ?

मुझे अपने आप पे मान था कि न जब तलक तेरा ध्यान था

तू मिसाल थी मेरी आगही तू कमाले-बेख़बरी रही

मेरे आश्ना भी अजीब थे न रफ़ीक़ थे न रक़ीब थे

मुझे जाँ से दर्द अज़ीज़ था उन्हें फ़िक्रे-चारागरी रही

मैं ये जानता था मेरा हुनर है शिकस्तो-रेख़्त से मोतबर

जहाँ लोग संग-बदस्त थे वहीं मेरी शीशागरी रही

जहाँ नासेहों का हुजूम था वहीं आशिक़ों की भी धूम थी

जहाँ बख़्यागर थे गली-गली वहीं रस्मे-जामादरी रही

तेरे पास आके भी जाने क्यूँ मेरी तिश्नगी में हिरास’अ था

बमिसाले-चश्मे-ग़ज़ा जो लबे-आबजू भी डरी रही

जो हवस फ़रोश थे शहर के सभी माल बेच के जा चुके

मगर एक जिन्से-वफ़ा मेरी सरे-रह धरी की धरी रही

मेरे नाक़िदों ने फ़राज़’ जब मेरा हर्फ़-हर्फ़ परख लिया

तो कहा कि अहदे-रिया में भी जो खरी थी बात खरी रही

(आश्ना=जानकार, परिचित, रक़ीब=शत्रु, शिकस्तो-रेख़्त=टूट फूट,

संग-बदस्त=हाथ में पत्थर लिए हुए, नासेहों=उपदेश देने वाले,

बख़्यागर=कपड़ा सीने वाले, रस्मे-जामादरी=पागलपन की

अवस्था में कपड़े फाड़ने की रीत, तिश्नगी=प्यास, हिरास’अ=

आशंका,निराशा, बमिसाले-चश्मे-ग़ज़ा=हिरन की आँख की तरह,

लबे-आबजू=दरिया के किनारे, नाक़िद=आलोचक, अहदे-रिया=

झूठा ज़माना)

 

यूँ तुझे ढूँढ़ने निकले के न आए ख़ुद भी

यूँ तुझे ढूँढ़ने निकले के न आए ख़ुद भी

वो मुसाफ़िर कि जो मंज़िल थे बजाए ख़ुद भी

कितने ग़म थे कि ज़माने से छुपा रक्खे थे

इस तरह से कि हमें याद न आए खुद भी

ऐसा ज़ालिम कि अगर ज़िक्र में उसके कोई ज़ुल्म

हमसे रह जाए तो वो याद दिलाए ख़ुद भी

लुत्फ़ तो जब है तअल्लुक़ में कि वो शहरे-जमाल

कभी खींचे कभी खिंचता चला आए ख़ुद भी

ऐसा साक़ी हो तो फिर देखिए रंगे-महफ़िल

सबको मदहोश करे होश से जाए ख़ुद भी

यार से हमको तगाफ़ुल का गिला है बेजा

बारहा महफ़िले-जानाँ से उठ आए ख़ुद भी

आज फिर दिल ने कहा आओ भुला दें यादें
आज फिर दिल ने कहा आओ भुला दें यादें

ज़िंदगी बीत गई और वही यादें-यादें

जिस तरह आज ही बिछड़े हों बिछड़ने वाले

जैसे इक उम्र के दुःख याद दिला दें यादें

काश मुमकिन हो कि इक काग़ज़ी कश्ती की तरह

ख़ुदफरामोशी के दरिया में बहा दें यादें

वो भी रुत आए कि ऐ ज़ूद-फ़रामोश मेरे

फूल पत्ते तेरी यादों में बिछा दें यादें

जैसे चाहत भी कोई जुर्म हो और जुर्म भी वो

जिसकी पादाश में ताउम्र सज़ा दें यादें

भूल जाना भी तो इक तरह की नेअमत है ‘फ़राज़’

वरना इंसान को पागल न बना दें यादें

मैं दीवाना सही पर बात सुन ऐ हमनशीं मेरी
मैं दीवाना सही पर बात सुन ऐ हमनशीं मेरी

कि सबसे हाले-दिल कहता फिरूँ आदत नहीं मेरी

तअम्मुल क़त्ल में तुझको मुझे मरने की जल्दी थी

ख़ता दोनों की है उसमें, कहीं तेरी कहीं मेरी

भला क्यों रोकता है मुझको नासेह गिर्य: करने से

कि चश्मे-तर मेरा है, दिल मेरा है, आस्तीं मेरी

मुझे दुनिया के ग़म और फ़िक्र उक़बा की तुझे नासेह

चलो झगड़ा चुकाएँ आसमाँ तेरा ज़मीं मेरी

मैं सब कुछ देखते क्यों आ गया दामे-मुहब्बत में

चलो दिल हो गया था यार का, आंखें तो थीं मेरी

‘फ़राज़’ ऐसी ग़ज़ल पहले कभी मैंने न लिक्खी थी

मुझे ख़ुद पढ़के लगता है कि ये काविश नहीं मेरी

ना दिल से आह ना लब से सदा निकलती है
ना दिल से आह ना लब से सदा निकलती है

मगर ये बात बड़ी दूर जा निकलती है

सितम तो ये है अहदे सितम के जाते ही

तमाम खल्क मेरी हमनवां निकलती है

विसाले बहर की हसरत में ज़ूए-कम-मायः

कभी कभी किसी सहरा में जा निकलती है

मैं क्या करूं मेरे कातिल ना चाहने पर भी

तेरे लिये मेरे दिल से दुआ निकलती है

वो ज़िन्दगी हो कि दुनिया “फ़राज़” क्या कीजे

कि जिससे इश्क करो बेवफ़ा निकलती है

(खल्क=दुनिया, हमनवां=सहमत, विसाले-बहर=

समन्दर से मिलने कि चाहत, जूए-कम-मायः=

कम पानी की नदी)

तेरी बातें ही सुनाने आये
तेरी बातें ही सुनाने आये

दोस्त भी दिल ही दुखाने आये

फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं

तेरे आने के ज़माने आये

ऐसी कुछ चुप सी लगी है जैसे

हम तुझे हाल सुनाने आये

इश्क़ तन्हा है सर-ए-मंज़िल-ए-ग़म

कौन ये बोझ उठाने आये

अजनबी दोस्त हमें देख के हम

कुछ तुझे याद दिलाने आये

दिल धड़कता है सफ़र के हंगाम

काश फिर कोई बुलाने आये

अब तो रोने से भी दिल दुखता है

शायद अब होश ठिकाने आये

क्या कहीं फिर कोई बस्ती उजड़ी

लोग क्यूँ जश्न मनाने आये

आ ना जाए कहीं फिर लौट के जाँ

मेरी मय्यत वो सझाने आये

सो रहो मौत के पहलू में “फ़राज़”

नींद किस वक़्त न जाने आये

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे

तू बहुत देर से मिला है मुझे

हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं

इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल

हार जाने का हौसला है मुझे

लब कुशां हूं तो इस यकीन के साथ

कत्ल होने का हौसला है मुझे

दिल धडकता नहीं सुलगता है

वो जो ख्वाहिश थी, आबला है मुझे

कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़

क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे

दुख फ़साना नहीं के तुझसे कहें
दुख फ़साना नहीं के तुझसे कहें

दिल भी माना नहीं के तुझसे कहें

आज तक अपनी बेकली का सबब

ख़ुद भी जाना नहीं के तुझसे कहें

एक तू हर्फ़आश्ना था मगर

अब ज़माना नहीं के तुझसे कहें

बे-तरह दिल है और तुझसे

दोस्ताना नहीं के तुझसे कहें

ऐ ख़ुदा दर्द-ए-दिल है बख़्शिश-ए-दोस्त

आब-ओ-दाना नहीं के तुझसे कहें

 

तुझसे बिछड़ के हम भी मुकद्दर के हो गये

तुझसे बिछड़ के हम भी मुकद्दर के हो गये

फिर जो भी दर मिला है उसी दर के हो गये

फिर यूँ हुआ के गैर को दिल से लगा लिया

अंदर वो नफरतें थीं के बाहर के हो गये

क्या लोग थे के जान से बढ़ कर अजीज थे

अब दिल से मेह नाम भी अक्सर के हो गये

ऐ याद-ए-यार तुझ से करें क्या शिकायतें

ऐ दर्द-ए-हिज्र हम भी तो पत्थर के हो गये

समझा रहे थे मुझ को सभी नसेहान-ए-शहर

फिर रफ्ता रफ्ता ख़ुद उसी काफिर के हो गये

अब के ना इंतेज़ार करें चारगर का हम

अब के गये तो कू-ए-सितमगर के हो गये

रोते हो एक जजीरा-ए-जाँ को “फ़राज़” तुम

देखो तो कितने शहर समंदर के हो गये

गनीम से भी अदावत में हद नहीं माँगी
गनीम से भी अदावत में हद नहीं माँगी

कि हार मान ली, लेकिन मदद नहीं माँगी

हजार शुक्र कि हम अहले-हर्फ़-जिन्दा ने

मुजाविराने-अदब से सनद नहीं माँगी

बहुत है लम्हा-ए-मौजूद का शरफ़ भी मुझे

सो अपने फ़न से बकाये-अबद नहीं माँगी

क़बूल वो जिसे करता वो इल्तिजा नहीं की

दुआ जो वो न करे मुस्तरद, नहीं माँगी

मैं अपने जाम-ए-सद-चाक से बहुत खुश हूँ

कभी अबा-ओ-क़बा-ए-ख़िरद नहीं माँगी

शहीद जिस्म सलामत उठाये जाते हैं

तभी तो गोरकनों से लहद नहीं माँगी

मैं सर-बरहना रहा फिर भी सर कशीदा रहा

कभी कुलाह से तौक़ीद-ए- सर नहीं माँगी

अता-ए-दर्द में वो भी नहीं था दिल का ग़रीब

`फ़राज’ मैंने भी बख़्शिश में हद नहीं माँगी

ज़ख़्म को फ़ूल तो सर-सर को सबा कहते हैं
ज़ख़्म को फ़ूल तो सर-सर को सबा कहते हैं

जाने क्या दर्द है, क्या लोभ है, क्या कहते हैं

क्या कयामत है कि जिनके लिये रुक रुक के चले

अब वही लोग हमें आबला-पा कहते हैं

कोई बतलाओ कि इक उम्र का बिछुडा महबूब

इत्तेफ़ाकन कहीं मिल जाये तो क्या कहते हैं

ये भी अन्दाज़े सुखन है कि खता को तेरी

ग़मज़-ओ-इश्वः-ओ-अन्दाज-ओ-अदा कहते हैं

जब तलक दूर है तू तेरी परस्तिश कर लें

हम जिसे छू ना सकें, उसको खुदा कहते हैं

क्या त़अज्जुब है कि हम अहले-तमऩ्ना को फ़राज़

वो जो महरूम-ए-तमऩ्ना हैं बुरा कहते हैं

 

 

तुझे उदास किया खुद भी सोगवार हुए

तुझे उदास किया खुद भी सोगवार हुए

हम आप अपनी मोहब्बत से शर्मसार हुए

बला की रौ थी नदीमाने-आबला-पा को

पलट के देखना चाहा कि खुद गुबार हुए

गिला उसी का किया जिससे तुझपे हर्फ़ आया

वरना यूँ तो सितम हम पे बेशुमार हुए

ये इन्तकाम भी लेना था ज़िन्दगी को अभी

जो लोग दुश्मने-जाँ थे, वो गम-गुसार हुए

हजार बार किया तर्के-दोस्ती का ख्याल

मगर फ़राज़ पशेमाँ हर एक बार हुए

बुझा है दिल तो ग़मे-यार अब कहाँ तू भी
बुझा है दिल तो ग़मे-यार अब कहाँ तू भी

मिसाले साया-ए-दीवार अब कहाँ तू भी

बजा कि चश्मे-तलब भी हुई तही कीस

मगर है रौनक़े-बाज़ार अब कहाँ तू भी

हमें भी कारे-जहाँ ले गया है दूर बहुत

रहा है दर-पए आज़ार अब कहाँ तू भी

हज़ार सूरतें आंखों में फिरती रहती हैं

मेरी निगाह में हर बार अब कहाँ तू भी

उसी को अहद फ़रामोश क्यों कहें ऐ दिल

रहा है इतना वफ़ादार अब कहाँ तू भी

मेरी गज़ल में कोई और कैसे दर आए

सितम तो ये है कि ऐ यार अब कहाँ तू भी

जो तुझसे प्यार करे तेरी नफ़रतों के सबब

‘फ़राज़’ ऐसा गुनहगार अब कहाँ तू भी

 

 

अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और

अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और

उस कू-ए-मलामत में गुजरते कोई दिन और

रातों के तेरी यादों के खुर्शीद उभरते

आँखों में सितारे से उभरते कोई दिन और

हमने तुझे देखा तो किसी और को ना देखा

ए काश तेरे बाद गुजरते कोई दिन और

राहत थी बहुत रंज में हम गमतलबों को

तुम और बिगड़ते तो संवरते कोई दिन और

गो तर्के-तअल्लुक था मगर जाँ पे बनी थी

मरते जो तुझे याद ना करते कोई दिन और

उस शहरे-तमन्ना से फ़राज़ आये ही क्यों थे

ये हाल अगर था तो ठहरते कोई दिन और

(कू-ए-मलामत=ऐसी गली जहाँ व्यंग्य किया

जाता हो, खुर्शीद=सूर्य, रंज= तकलीफ़, गमतलब=

दुख पसन्द करने वाले, तर्के-तअल्लुक=रिश्ता

टूटना)

जो चल सको तो कोई ऐसी चाल चल जाना
जो चल सको तो कोई ऐसी चाल चल जाना

मुझे गुमाँ भी ना हो और तुम बदल जाना

ये शोलगी हो बदन की तो क्या किया जाये

सो लाजमी है तेरे पैरहन का जल जाना

तुम्हीं करो कोई दरमाँ, ये वक्त आ पहुँचा

कि अब तो चारागरों का भी हाथ मल जाना

अभी अभी जो जुदाई की शाम आई थी

हमें अजीब लगा ज़िन्दगी का ढल जाना

सजी सजाई हुई मौत ज़िन्दगी तो नहीं

मुअर्रिखों ने मकाबिर को भी महल जाना

ये क्या कि तू भी इसी साअते-जवाल में है

कि जिस तरह है सभी सूरजों को ढल जाना

हर इक इश्क के बाद और उसके इश्क के बाद

फ़राज़ इतना आसाँ भी ना था संभल जाना

(शोलगी=अग्नि ज्वाला, मुअर्रिख= इतिहास कार,

मकाबिर=कब्र का बहुवचन, साअते-जवाल= ढलान

का क्षण)

 

हम सुनायें तो कहानी और है

हम सुनायें तो कहानी और है

यार लोगों की जुबानी और है

चारागर रोते हैं ताज़ा ज़ख्म को

दिल की बीमारी पुरानी और है

जो कहा हमने वो मजमूँ और था

तर्जुमाँ की तर्जुमानी और है

है बिसाते-दिल लहू की एक बूंद

चश्मे-पुर-खूं की रवानी और है

नामाबर को कुछ भी हम पैगाम दें

दास्ताँ उसने सुनानी और है

आबे-जमजम दोस्त लायें हैं अबस

हम जो पीते हैं वो पानी और है

सब कयामत कामतों को देख लो

क्या मेरे जानाँ का सानी और है

अहले-दिल के अन्जुमन में आ कभी

उसकी दुनिया यार जानी और है

शाइरी करती है इक दुनिया फ़राज़

पर तेरी सादा बयानी और है

(चश्मे-पुर-खूं=खून से भरी हुई आँख,

आबे-जमजम=मक्के का पवित्र पानी,

अबस=बेकार, सानी=बराबर,दूसरा, कामत=

लम्बे शरीर वाला)

संगदिल है वो तो क्यूं इसका गिला मैंने किया
संगदिल है वो तो क्यूं इसका गिला मैंने किया

जब कि खुद पत्थर को बुत, बुत को खुदा मैंने किया

कैसे नामानूस लफ़्ज़ों कि कहानी था वो शख्स

उसको कितनी मुश्किलों से तर्जुमा मैंने किया

वो मेरी पहली मोहब्बत, वो मेरी पहली शिकस्त

फिर तो पैमाने-वफ़ा सौ मर्तबा मैंने किया

हो सजावारे-सजा क्यों जब मुकद्दर में मेरे

जो भी उस जाने-जहाँ ने लिख दिया, मैंने किया

वो ठहरता क्या कि गुजरा तक नहीं जिसके लिया

घर तो घर, हर रास्ता, आरास्ता मैंने किया

मुझपे अपना जुर्म साबित हो न हो लेकिन मैंने

लोग कहते हैं कि उसको बेवफ़ा मैंने किया

(नामानूस=अजनबी, आरास्ता=सजाया)

अब वो मंजर, ना वो चेहरे ही नजर आते हैं
अब वो मंजर, ना वो चेहरे ही नजर आते हैं

मुझको मालूम ना था ख्वाब भी मर जाते हैं

जाने किस हाल में हम हैं कि हमें देख के सब

एक पल के लिये रुकते हैं गुजर जाते हैं

साकिया तूने तो मयखाने का ये हाल किया

रिन्द अब मोहतसिबे-शहर के गुण गाते हैं

ताना-ए-नशा ना दो सबको कि कुछ सोख्त-जाँ

शिद्दते-तिश्नालबी से भी बहक जाते हैं

जैसे तजदीदे-तअल्लुक की भी रुत हो कोई

ज़ख्म भरते हैं तो गम-ख्वार भी आ जाते हैं

एहतियात अहले-मोहब्बत कि इसी शहर में लोग

गुल-बदस्त आते हैं और पा-ब-रसन जाते हैं

(मोहतसिबे-शहर=धर्माधिकारी, सोख्त-जाँ=दिल जले,

शिद्दते-तिश्नालबी=प्यास की अधिकता, तजदीदे-

तअल्लुक=रिश्तों का नवीनीकरण)

अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी
अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी

इक ग़ज़ल है कि हो रही है अभी

मैं भी शहरे-वफ़ा में नौवारिद

वो भी रुक रुक के चल रही है अभी

मैं भी ऐसा कहाँ का ज़ूद शनास

वो भी लगता है सोचती है अभी

दिल की वारफ़तगी है अपनी जगह

फिर भी कुछ एहतियात सी है अभी

गरचे पहला सा इज्तिनाब नहीं

फिर भी कम कम सुपुर्दगी है अभी

कैसा मौसम है कुछ नहीं खुलता

बूंदा-बांदी भी धूप भी है अभी

ख़ुद-कलामी में कब ये नशा था

जिस तरह रु-ब-रू कोई है अभी

क़ुरबतें लाख खूबसूरत हों

दूरियों में भी दिलकशी है अभी

फ़सले-गुल में बहार पहला गुलाब

किस की ज़ुल्फ़ों में टांकती है अभी

सुबह नारंज के शिगूफ़ों की

किसको सौगात भेजती है अभी

रात किस माह -वश की चाहत में

शब्नमिस्तान सजा रही है अभी

मैं भी किस वादी-ए-ख़याल में था

बर्फ़ सी दिल पे गिर रही है अभी

मैं तो समझा था भर चुके सब ज़ख़्म

दाग़ शायद कोई कोई है अभी

दूर देशों से काले कोसों से

कोई आवाज़ आ रही है अभी

ज़िन्दगी कु-ए-ना-मुरादी से

किसको मुड़ मुड़ के देखती है अभी

इस क़दर खीच गयी है जान की कमान

ऐसा लगता है टूटती है अभी

ऐसा लगता है ख़ल्वत-ए-जान में

वो जो इक शख़्स था वोही है अभी

मुद्दतें हो गईं ‘फ़राज़’ मगर

वो जो दीवानगी थी, वही है अभी

(नौवारिद=नया आने वाला, ज़ूद-शनास=

जल्दी पहचानने वाला, वारफतगी=खोयापन,

इज्तिनाब=घृणा,अलगाव, सुपुर्दगी=सौंपना,

खुदकलामी=खुद से बातचीत, शिगूफ़े= फूल,

कलियां)

दर्द आशोब अहमद फ़राज़
फ़नकारों के नाम
तुमने धरती के माथे प’ अफ़्शाँ चुनी

ख़ुद अँधेरी फ़ज़ाओं में पलते रहे

तुमने दुनिया के ख़्वाबों की जन्नत चुनी

ख़ुद फ़लाकत के दोज़ख़ में जलते रहे

तुमने इन्सान के दिल की धड़कन सुनी

और ख़ुद उम्र-भर ख़ूँ उगलते रहे

जंग की आग दुनिया में जब भी जली

अम्न की लोरियाँ तुम सुनाते रहे

जब भी तख़रीब की तुन्द आँधी चली

रोशनी के निशाँ तुम दिखाते रहे

तुमसे इन्साँ की तहज़ीब फूली-फली

तुम मगर ज़ुल्म के तीर खाते रहे

तुमने शहकार ख़ूने-जिगर सजाए

और उसके एवज़ हाथ कटवा दिए

तुमने दुनिया को अमरत के चश्मे दिखाए

और ख़ुद ज़हरे-क़ातिल के प्याले पिए

और मरे तो ज़माने के हाथों से वाये

तुम जिए तो ज़माने की ख़ातिर जिए

तुम पयम्बर न थे अर्श के मुद्दई

तुमने दुनिया से दुनिया की बातें कहीं

तुमने ज़र्रों को तारों की तनवीर दी

तुमसे गो अपनी आँखें भी छीनी गईं

तुमने दुखते दिलों की मसीहाई की

और ज़माने से तुमको सलीबें मिलीं

काख़ो-दरबार से कूच-ए-दार तक

कल जो थे आज भी हैं वही सिलसिले

जीते-जी तो न पाई चमन की महक

मौत के बाद फूलों के मरक़द मिले

ऐ मसीहाओ! यह ख़ुदकुशी कब तलक

हैं ज़मीं से फ़लक़ तक बड़े फ़ासिले

(फ़नकारों=कलाकारों, अफ़्शाँ=स्त्रियों के

बालों या गालों पर छिड़कने वाला चूर्ण,

फ़लाकत=निर्धनता, तख़रीब=विध्वंस,

तुन्द=प्रचण्ड, एवज़=बदले में, पयम्बर=

दूत, मुद्दई=दावा करने वाले, तनवीर=ज्योति,

गो=यद्यपि, काख़ो-दरबार-महल और राज सभा,

कूच-ए-दार=फाँसी की गली, मरक़द=समाधि)

 

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ

 

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ

आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मुहब्बत का भरम रख

तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो

रस्मे-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस-किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम

तू मुझ से ख़फा है तो ज़माने के लिए आ

इक उम्र से हूँ लज्ज़त-ए-गिरिया से भी महरूम

ऐ राहत-ऐ-जाँ मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ऐ-ख़ुशफ़हम को तुझ से है उम्मीदें

ये आखिरी शम्अ भी बुझाने के लिए आ

(पिन्दार=गर्व, मरासिम=प्रेम व्यवहार, गिरिया=

रोना, महरूम=वंचित)

क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे
क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे

दिल वो बेमेह्र कि रोने के बहाने माँगे

अपना ये हाल के जी हार चुके लुट भी चुके

और मुहब्बत वही अन्दाज़ पुराने माँगे

यही दिल था कि तरसता था मरासिम के लिए

अब यही तर्के-तल्लुक़ के बहाने माँगे

हम न होते तो किसी और के चर्चे होते

खल्क़त-ए-शहर तो कहने को फ़साने माँगे

ज़िन्दगी हम तेरे दाग़ों से रहे शर्मिन्दा

और तू है कि सदा आइनेख़ाने माँगे

दिल किसी हाल पे क़ाने ही नहीं जान-ए-“फ़राज़”

मिल गये तुम भी तो क्या और न जाने माँगे

(क़ुर्बतों=सामीप्य, बेमेह्र=निर्दयी, मरासिम=

क़ाने=आत्मसंतोषी)

मा’बूद
बहुत हसीन हैं तेरी अक़ीदतों के गुलाब

हसीनतर है मगर हर गुले-ख़याल तिरा

हर एक दर्द के रिश्ते में मुंसलिक दोनों

तुझे अज़ीज़ मिरा फ़न , मुझे जमाल तिरा

मगर तुझे नहीं मालूम क़ुर्बतों के अलम

तिरी निगाह मुझे फ़ासलों से चाहती है

तुझे ख़बर नहीं शायद कि ख़िल्वतों में मिरी

लहू उगलती हुई ज़िन्दगी कराहती है

तुझे ख़बर नहीं शायद कि हम वहाँ हैं जहाँ

ये फ़न नहीं है अज़ीयत है ज़िंदगी भर की

यहाँ गुलू-ए-जुनूँ पर कमंद पड़ती है

यहाँ क़लम की ज़बाँ पर है नोंक ख़ंज़र की

हम उस क़बील-ए-वहशी के देवता हैं कि जो

पुजारियों की अक़ीदत से फूल जाते हैं

और एक रात के मा’बूद सुब्ह होते ही

वफ़ा-परस्त सलीबों पे झूल जाते हैं

(मा’बूद=ईश्वर, अक़ीदतों=आस्थाओं, मुंसलिक=

पिरोए हुए,जुड़े हुए, जमाल=सौंदर्य, क़ुर्बतों=

सामीप्य, अलम=दु:ख, ख़िल्वतों=एकांतों,फ़न=

कला, अज़ीयत=यातना, गुलू-ए-जुनूँ=उन्माद के

गले, कमंद=फंदा, क़बील=क़बीले, वफ़ा-परस्त=

प्रेम-प्रतिज्ञा को पूजने वाले)

जुज़ तेरे कोई भी दिन-रात न जाने मेरे
जुज़ तेरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे

तू कहाँ है मगर ऐ दोस्त पुराने मेरे

तू भी ख़ुश्बू है मगर मेरा तजस्सुस बेकार

बर्गे -आवारा की मानिंद ठिकाने मेरे

शम्अ की लौ थी कि वो तू था मगर हिज्र की रात

देर तक रोता रहा कोई सरहाने मेरे

ख़ल्क़ की बेख़बरी है कि मिरी रुस्वाई

लोग मुझको ही सुनाते हैं फ़साने मेरे

लुट के भी ख़ुश हूँ कि अश्कों से भरा है दामन

देख ग़ारतगरे-दिल ये भी ख़ज़ाने मेरे

आज इक और बरस बीत गया उसके बग़ैर

जिस के होते हुए होते थे ज़माने मेरे

काश तू भी मेरी आवाज़ कहीं सुनता हो

फिर पुकारा है तुझे दिल की सदा ने मेरे

काश तू भी कभी आ जाए मसीहाई को

लोग आते हैं बहुत दिल को दुखाने मेरे

काश औरों की तरह मैं भी कभी कह सकता

बत सुन ली है मेरी आज ख़ुदा ने मेरे

तू है किस हाल में ऐ जूद-फ़रामोश मिरे

मुझको तो छीन लिया अहदे-वफ़ा ने मेरे

चारागर यूँ तो बहुत हैं मगर ऐ जाने-‘फ़राज़’

जुज़ तेरे और कोई ज़ख़्म न जाने मेरे

न हरीफ़े जाँ न शरीक़े-ग़म शबे-इंतज़ार कोई तो हो
न हरीफ़े-जाँ न शरीक़े-ग़म शबे-इन्तज़ार कोई तो हो

किसे बज़्मे-शौक़ में लाएँ हम दिले-बेक़रार कोई तो हो

किसे ज़िन्दगी है अज़ीज़ अब किसे आरज़ू-ए-शबे-तरब

मगर ऐ निगारे-वफ़ा- तलब तिरा एतिबार कोई तो हो

कहीं तारे-दामने-गुल मिले तो य मान लें कि चमन खिले

कि निशान फ़स्ले-बहार का सरे-शाख़सार कोई तो हो

ये उदास-उदास-से बामो-दर, ये उजाड़-उजाड़-सी रहगुज़र

चलो हम नहीं न सही मगर सरे-कू-ए-यार कोई तो हो

ये सुकूने-जाँ की घड़ी ढले तो चराग़े-दिल ही न बुझ चले

वो बला से हो ग़मे-इश्क़ या ग़मे-रोज़गार कोई तो हो

सरे-मक़्तले-शबे-आरज़ू रहे कुछ तो इश्क़ की आबरू

जो नहीं अदू तो ‘फ़राज़’ तू कि नसीबे-दार कोई तो हो

(हरीफ़े-जाँ=जान के दुश्मन, बज़्म=सभा, निगारे-वफ़ा- तलब=

प्रेम-का पालन करने की आकांक्षा रखने वाली सुन्दरता,

तारे-दामने-गुल मिले=फूल की आँचल का तार, फ़स्ले-बहार=

वसंत ऋतु, बामो-दर=छत और द्वार, सरे-मक़्तले-शबे-आरज़ू=

आकांक्षाओं की रात्रि का वध-स्थल, अदू=शत्रु, नसीबे-दार=

सूली का भाग्य)

शाख़े-निहाले-ग़म
मैं एक बर्गे-ख़िज़ाँ की मानिंद

कब से शाख़े-निहाले-ग़म पर

लरज़ रहा हूँ

मुझे अभी तक है याद वो जाँफ़िग़ार साअत

कि जब बहारों की आख़िरी शाम

मुझसे कुछ यूँ लिपट के रोई

कि जैसे अब उम्र-भर न देखेगा

हम में एक दूसरे को कोई

वो रात कितनी कड़ी थी

जब आँधियों के शबख़ूँ से

बू-ए-गुल भी लहू-लहू थी

सहर हुई जब तो पेड़ यूँ ख़ुश्को-ज़र्द-रू थे

कि जैसे मक़्तल में मेरे बिछड़े हुए रफ़ीक़ों की

ज़ख़्मख़ुर्दा बरहना लाशें

गड़ी हुई हों

मैं जानता था

कि जब ये बोझल बुलंद अश्जार

जिनकी कुहना जड़ें ज़मीं की अमीक़ गहराइयों में बरसों से जागुज़ीं थी

हुजूमे-सरसर में चंद लम्हे ये एस्तादा न रह सके तो

मैं एक बर्गे-ख़िज़ाँ भी

शाख़े-निहाले-ग़म पर रह सकूँगा

वो एक पल था कि एक रुत थी

मगर मिरे वास्ते बहुत थी

मुझे ख़बर है कि कल बहारों की अव्वलीं सुब्ह

फिर से बे-बर्गो-बार शाख़ों को

ज़िंदगी की नई क़बाएँ अता करेंगी

मगर मिरा दिल धड़क रहा है

मुझे, जिसे आँधियों की यूरिश

ख़िज़ाँ के तूफ़ाँ न छू सके थे

कहीं नसीमे-बहार शाख़े-निहाले-ग़म से

जुदा न कर दे

(शाख़े-निहाले-ग़म=दु:ख के पौधे की डाली,

बर्गे-ख़िज़ाँ=पतझड़ की पंखड़ी, मानिंद=भाँति,

जाँफ़िग़ार=घायल-प्राण, साअत=क्षण, शबख़ूँ=

रात के अँधेरे में शत्रु पर आक्रमण, सहर=

प्रात:, ख़ुश्को-ज़र्द-रू=सूखा व पीला चेहरा,

मक़्तल=वध-स्थल्, रफ़ीक़=मित्र, बरहना=

नंगी, अश्जार=वृक्ष, कुहना=प्राचीन, अमीक़=

अथाह, जागुज़ीं=घोर कष्टदायक, हुजूमे-सरसर=

आँधियों की भीड़, एस्तादा=सीधे खड़े, क़बाएँ=

आवरण, अता=प्रदान, यूरिश=आक्रमण)

ख़ुदकलामी
देखे ही नहीं वो लबो-रुख़सार वो ग़ेसू

बस एक खनकती हुई आवाज़ का जादू

हैरान परेशाँ लिए फिरता है तू हर सू

पाबंदे- तसव्वुर नहीं वो जल्वा-ए-बेताब

हो दूर तो जुगनू है क़रीब आए तो ख़ुशबू

लहराए तो शोला है छ्नक जाए तो घुँघरू

बाँधे हैं निगाहोँ ने सदाओं के भी मंज़र

वो क़हक़हे जैसी भरी बरसात में कू-कू

जैसे कोई क़ुमरी सरे-शमशाद लबे-जू

ऐ दिल तेरी बातों में कहाँ तक कोई आए

जज़्बात की दुनिया में कहाँ सोच के पहलू

कब आए है फ़ित्राक़ में वहशतज़दा आहू

माना कि वो लब होंगे शफ़क़-रंगो-शरर ख़ू

शायद कि वो आरिज़ हों गुले-तर से भी ख़ुशरू

दिलकश ही सही हल्क़-ए-ज़ुल्फ़ो-ख़मो-अबरू

पर किसको ख़बर किसका मुक़द्दर है ये सब कुछ

ख़्वाबों की घटा दूर बरस जाएगी और तू

लौट आएगा लेकर फ़क़त आहें फ़क़त आँसू

(लबो-रुख़सार=होंठ व गाल, ग़ेसू=केश, सू=तरफ़, तसव्वुर=

कल्पना, सदाओं=आवाज़ों, मंज़र-दृश्य, सरे-शमशाद=सर्व के

पेड़ पर, लबे-जू=नदी किनारे, फ़ित्राक़=वह रस्सी जो घोड़े

की जीन में शिकार बाँधने के लिए लगाते हैं, आहू=हिरण,

शफ़क़-रंगो-शरर ख़ू=आसमान की लाली के रंग तथा चिंगारी

भरे रक्त, आरिज़=होंठ, ख़ुशरू=रूपवान, हल्क़-ए-ज़ुल्फ़ो-ख़मो-

अबरू=भवों तथा ज़ुल्फों के घेरे, फ़क़त=केवल)

दिल तो वो बर्गे-ख़िज़ाँ है कि हवा ले जाए
दिल तो वो बर्ग़े-ख़िज़ाँ है कि हवा ले जाए

ग़म वो आँधी है कि सहरा भी उड़ा ले जाए

कौन लाया तेरी महफ़िल में हमें होश नहीं

कोई आए तेरी महफ़िल से उठा ले जाए

और से और हुए जाते हैं मे’यारे वफ़ा

अब मताए-दिलो-जाँ भी कोई क्या ले जाए

जाने कब उभरे तेरी याद का डूबा हुआ चाँद

जाने कब ध्यान कोई हमको उड़ा ले जाए

यही आवारगी-ए-दिल है तो मंज़िल मालूम

जो भी आए तेरी बातों में लगा ले जाए

दश्ते-गुरबत में तुम्हें कौन पुकारेगा ‘फ़राज़’

चल पड़ो ख़ुद ही जिधर दिल की सदा ले जाए

(बर्ग़े-ख़िज़ाँ=पतझड़ का पत्ता, सहरा, रेगिस्तान,

मताए-दिलो-जाँ=दिल और जान की पूँजी,

दश्ते-गुरबत=दरिद्रता,परदेस, सदा=पुकार)

न इंतज़ार की लज़्ज़त , न आरज़ू की थकन
न इंतज़ार की लज़्ज़त न आरज़ू की थकन

बुझी हैं दर्द की शम्एँ कि सो गया है बदन

सुलग रही हैं न जाने किस आँच से आँखें

न आँसुओं की तलब है न रतजगों की जलन

दिले-फ़रेबज़दा ! दावते-नज़र प’ न जा

ये आज के क़दो-गेसू हैं कल के दारो-रसन

ग़रीबे-शहर किसी साय-ए-शजर में न बैठ

कि अपनी छाँव में ख़ुद जल रहे हैं सर्वो-समन

बहारे-क़ुर्ब से पहले उजाड़ देती हैं

जुदाइयों की हवाएँ महब्बतों के चमन

वो एक रात गुज़र भी गई मगर अब तक

विसाले-यार की लज़्ज़त से टूटता है बदन

फिर आज शब तिरे क़दमों की चाप के हमराह

सुनाई दी है दिले-नामुराद की धड़कन

ये ज़ुल्म देख कि तू जाने-शाइरी है मगर

मिरी ग़ज़ल पे तिरा नाम भी है जुर्मे-सुख़न

अमीरे-शहर ग़रीबों को लूट लेता है

कभी ब-हीला-ए-मज़हब कभी ब-नामे-वतन

हवा-ए-दहर से दिल का चराग़ क्या बुझता

मगर ‘फ़राज़’ सलामत है यार का दामन

(क़दो-गेसू=क़द और बाल, दारो-रसन=सूली और

रस्सी, शजर=वृक्ष, सर्वो-समन=सर्व तथा फूल,

बहारे-क़ुर्ब=सामीप्य की बहार, विसाल=प्रेमी,

शब=रात, दहर=काल,समय)

हम तो यूँ ख़ुश थे कि इक तार गिरेबान में है
हम तो यूँ ख़ुश थे कि इक तार गिरेबान में है

क्या ख़बर थी कि बहार उसके भी अरमान में है

एक ज़र्ब और भी ऐ ज़िन्दगी-ए-तेशा-ब-दस्त !

साँस लेने की सकत अब भी मेरी जान में है

मैं तुझे खो के भी ज़िंदा हूँ ये देखा तूने

किस क़दर हौसला हारे हुए इन्सान में है

फ़ासले क़ुर्ब के शोले को हवा देते हैं

मैं तेरे शहर से दूर और तू मेरे ध्यान में है

सरे-दीवार फ़रोज़ाँ है अभी एक चराग़

ऐ नसीमे-सहरी ! कुछ तिरे इम्कान में है

दिल धड़कने की सदा आती है गाहे-गाहे

जैसे अब भी तेरी आवाज़ मिरे कान में है

ख़िल्क़ते-शहर के हर ज़ुल्म के बावस्फ़ ‘फ़राज़’

हाय वो हाथ कि अपने ही गिरेबान में है

(गिरेबान=कुर्ते का गला, ज़र्ब=चोट, तेशा-ब-दस्त=

हाथ में कुदाली लिए, सकत=ताक़त, क़ुर्ब=सामीप्य,

फ़रोज़ाँ=प्रकाशमान, नसीमे-सहरी=प्रात:कालीन हवा,

इम्कान=संभावना, गाहे-गाहे=कभी-कभी, ख़िल्क़त=

जनता, बावस्फ़=बावजूद)

ख़ामोश हो क्यों दादे-ज़फ़ा क्यूँ नहीं देते
ख़ामोश हो क्यों दाद-ए-ज़फ़ा क्यूँ नहीं देते

बिस्मिल हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते

वहशत का सबब रोज़न-ए-ज़िन्दाँ तो नहीं है

मेहर-ओ-महो-ओ-अंजुम को बुझा क्यूँ नहीं देते

इक ये भी तो अन्दाज़-ए-इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ है

ऐ चारागरो ! दर्द बढ़ा क्यूँ नहीं देते

मुंसिफ़ हो अगर तुम तो कब इन्साफ़ करोगे

मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यूँ नहीं देते

रहज़न हो तो हाज़िर है मता-ए-दिल-ओ-जाँ भी

रहबर हो तो मन्ज़िल का पता क्यूँ नहीं देते

क्या बीत गई अब के “फ़राज़” अहल-ए-चमन पर

यारान-ए-क़फ़स मुझको सदा क्यूँ नहीं देते

(दाद-ए-ज़फ़ा=अन्याय की प्रशंसा, बिस्मिल=घायल,

रोज़न-ए-ज़िन्दाँ=जेल का छिद्र, मेहर-ओ-महो-ओ-अंजुम=

सूर्य, चाँद और तारे, चारागर=चिकित्सक, मुंसिफ़=

न्यायाधीश, रहज़न=लुटेरा, मता=पूँजी, क़फ़स=जेल,

सदा=आवाज़)

इज़्हार
पत्थर की तरह अगर मैं चुप रहूँ

तो ये न समझ कि मेरी हस्ती

बेग़ान-ए-शोल-ए-वफ़ा है

तहक़ीर से यूँ न देख मुझको

ऐ संगतराश !

तेरा तेशा

मुम्किन है कि ज़र्बे-अव्वली से

पहचान सके कि मेरे दिल में

जो आग तेरे लिए दबी है

वो आग ही मेरी ज़िंदगी है

(हस्ती=अस्तित्व, बेग़ान-ए-शोल-ए-वफ़ा=

प्रेम-प्रतिज्ञा से अनभिज्ञ, तहक़ीर=उपेक्षा,

संगतराश=मूर्तिकार, ज़र्बे-अव्वली=पहली चोट)

ख़ुदकुशी
वो पैमान भी टूटे जिनको

हम समझे थे पाइंदा

वो शम्एं भी दाग हैं जिनको

बरसों रक्खा ताबिंदा

दोनों वफ़ा करके नाख़ुश हैं

दोनों किए पर शर्मिन्दा

प्यार से प्यारा जीवन प्यारे

क्या माज़ी क्या आइंदा

हम दोनों अपने क़ातिल हैं

हम दोनों अब तक ज़िन्दा

(पैमान=वचन, पाइंदा=अनश्वर,

ताबिंदा=प्रकाशमान, माज़ी=

अतीत, आइंदा=भविष्यकाल)

सुन भी ऐ नग़्मासंजे-कुंजे-चमन अब समाअत का इन्तज़ार किसे
सुन भी ऐ नग़्मासंजे-कुंजे-चमन अब समाअत का इंतज़ार किसे

कौन-सा पैरहन सलामत है दीजिए दावते-बहार किसे

जल बुझीं दर्दे-हिज्र की शम्एँ घुल चुके नीम-सोख़्ता पैकर

सर में सौदा-ए-ख़ाम हो भी क्या ताक़तो-ताबे–इंतज़ार किसे

नक़्दे-जाँ भी तो नज़्र कर आए और हम मुफ़लिसों के पास था क्या

कौन है अहले-दिल में इतना ग़नी इस क़दर पासे-तब्ए-यार किसे

काहिशे-ज़ौक़े-जुस्तजू मालूम दाग़ है दिल चिराग़ हैं आँखें

मातमे-शहरे-आरज़ू कीजे फ़ुर्सते-नग़्म-ए-क़रार किसे

कौन दारा-ए-मुल्के-इश्क़ हुआ किस को जागीर-ए-चश्मो-ज़ुल्फ़ मिली

“ख़ूने-फ़रहाद, बर-सरे-फ़रहाद क़स्रे-शीरीं पे इख़्तियार किसे”

हासिले-मशबे-मसीहाई संगे-तहक़ीरो-मर्गे-रुस्वाई

क़ामते-यार हो कि रिफ़अते-दार इन सलीबों का एतबार किसे

(नग़्मासंजे-कुंजे-चमन=उपवन के कोने के गायक, समाअत=सुनना,

पैरहन=परिधान, नीम-सोख़्ता=अधजले, पैकर=प्रतिमाएँ, सौदा-ए-ख़ाम=

बेकार उन्माद, मुफ़लिसों=दरिद्रों, ग़नी=दयालू, पासे-तब्ए-यार=मित्र के

स्वभाव का लिहाज़, काहिशे-ज़ौक़े-जुस्तजू=तलाश की अभिरुचि, क़स्रे-शीरीं=

शीरीं का महल, हासिले-मशबे-मसीहाई=मुर्दे को जीवित करने के काम का

प्राप्य, संगे-तहक़ीरो-मर्गे-रुस्वाई=तिरस्कार का पत्थर और बदनामी की

मृत्यु, क़ामत=क़द, रिफ़अते-दार=फाँसी के तख़्ते की ऊँचाई)

दिल बहलता है कहाँ अंजुमो-महताब से भी
दिल बहलता है कहाँ अंजुमो-महताब से भी

अब तो हम लोग गए दीद-ए-बेख़्वाब से भी

रो पड़ा हूँ तो कोई बात ही ऐसी होगी

मैं कि वाक़िफ़ था तिरे हिज्र के आदाब से भी

कुछ तो इस आँख का शेवा है ख़फ़ा हो जाना

और कुछ भूल हुई है दिले-बेताब से भी

ऐ समन्दर की हवा तेरा करम भी मालूम

प्यास साहिल की तो बुझती नहीं सैलाब से भी

कुछ तो उस हुस्न को जाने है ज़माना सारा

और कुछ बात चली है मिरे अहबाब से भी

दिल कभी ग़म के समुंदर का शनावर था ‘फ़राज़’

अब तो ख़ौफ़ आता है इक मौज-ए-पायाब से भी

(अंजुमो-महताब=सितारों-चाँद, दीद-ए-बेख़्वाब=जागती आँखे,

आदाब=ढंग,तरीक़े, शेवा=परिपाटी, साहिल=तट, सैलाब=

बाढ़, अहबाब=मित्र, शनावर=तैराक, मौज-ए-पायाब=उथले

पानी की लहर)

वफ़ा के बाब में इल्ज़ामे-आशिक़ी न लिया
वफ़ा के बाब में इल्ज़ामे-आशिक़ी न लिया

कि तेरी बात की और तेरा नाम भी न लिया

ख़ुशा वो लोग कि महरूमे-इल्तिफ़ात रहे

तिरे करम को ब-अंदाज़े-सादगी न लिया

तुम्हारे बाद कई हाथ दिल की सम्त बढ़े

हज़ार शुक्र गिरेबाँ को हमने सी न लिया

तमाम मस्ती-ओ-तिश्नालबी के हंगामे

किसी ने संग उठाया किसी ने मीना लिया

‘फ़राज़’ ज़ुल्म है इतनी ख़ुद एतमादी भी

कि रात भी थी अँधेरी चराग़ भी न लिया

(बाब=परिच्छेद, ख़ुशा=भाग्यशाली, महरूमे-इल्तिफ़ात=

दया से वंचित, सम्त=ओर, तिश्नालबी=तृष्णा, संग=

पत्थर, मीना=मद्य-पात्र, ख़ुद एतमादी=आत्म-विश्वास)

शिकस्त
बारहा मुझसे कहा दिल ने कि ऐ शोब्दागर

तू कि अल्फ़ाज़ से अस्नामगरी करता है

कभी उस हुस्ने-दिलआरा की भी तस्वीर बना

जो तेरी सोच के ख़ाक़ों में लहू भरता है

बारहा दिल ने ये आवाज़ सुनी और चाहा

मान लूँ मुझसे जो विज्दान मेरा कहता है

लेकिन इस इज्ज़ से हारा मेरे फ़न का जादू

चाँद को चाँद से बढ़कर कोई क्या कहता है

(बारहा=कई बार, शोब्दागर=धोबी, अस्नामगरी=

मूर्तिकारी, हुस्ने-दिलआरा=प्रेमपात्र के सौंदर्य,

विज्दान=काव्य रसज्ञता, इज्ज़=दुर्बलता)

ज़ेरे-लब
किस बोझ से जिस्म टूटता है

इतना तो कड़ा सफ़र नहीं था

दो चार क़दम का फ़ासला क्या

फिर राह से बेख़बर नहीं था

लेकिन यह थकन यह लड़खड़ाहट

ये हाल तो उम्र-भर नहीं था

आग़ाज़े-सफ़र में जब चले थे

कब हमने कोई दिया जलाया

कब अहदे-वफ़ा की बात की थी

कब हमने कोई फ़रेब खाया

वो शाम,वो चाँदनी, वो ख़ुश्बू

मंज़िल का किसे ख़याल आया

तू मह्वे-सुख़न थी मुझसे लेकिन

मैं सोच के जाल बुन रहा था

मेरे लिए ज़िन्दगी तड़प थी

तेरे लिए ग़म भी क़हक़हा था

अब तुझसे बिछुड़ के सोचता हूँ

कुछ तूने कहा था क्या कहा था

(आग़ाज़=प्रारम्भ, अहदे-वफ़ा=

वफ़ादारी के वचन, मह्वे=मगन)

ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
ऐसे चुप हैं के ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे

तेरा मिलना भी जुदाई कि घड़ी हो जैसे

अपने ही साये से हर गाम लरज़ जाता हूँ

रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे

मंज़िलें दूर भी हैं मंज़िलें नज़दीक भी हैं

अपने ही पावों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे

तेरे माथे की शिकन पहले भी देखी थी मगर

यह गिरह अब के मेरे दिल पे पड़ी हो जैसे

कितने नादान हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे

याद करने के लिये उम्र पड़ी हो जैसे

आज दिल खोल के रोये हैं तो यूँ ख़ुश हैं “फ़राज़”

चंद लम्हों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे

(गाम=हर क़दम, शिकन=झुर्री, गिरह=गाँठ,

राहत=चैन)

क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तगू करे
क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तगू करे

जो मुस्तक़िल सुकूत से दिल को लहू करे

अब तो हमें भी तर्क-ए-मरासिम का दुख नहीं

पर दिल ये चाहता है के आगाज़ तू करे

तेरे बग़ैर भी तो ग़नीमत है ज़िन्दगी

खुद को गँवा के कौन तेरी जुस्तजू करे

अब तो ये आरज़ू है कि वो जख़्म खाइये

ता-ज़िन्दगी ये दिल न कोई आरज़ू करे

तुझ को भुला के दिल है वो शर्मिंदा-ए-नज़र

अब कोई हादिसा ही तेरे रु-ब-रू करे

चुपचाप अपनी आग में जलते रहो “फ़राज़”

दुनिया तो अर्ज़े–हाल से बे-आबरू करे

(मुस्तक़िल=अटल, सुकूत=मौन, तर्क-ए-मरासिम=

मेल-जोल छोड़ना, आगाज़=प्रारम्भ, ग़नीमत=

उत्तम, ता-ज़िन्दगी=जीवन भर, रु-ब-रू=समक्ष,

अर्ज़े–हाल=हालत सुनाने)

हरेक बात न क्यों ज़ह्र-सी हमारी लगे
हर एक बात न क्यूँ ज़ह्र-सी हमारी लगे

कि हमको दस्ते-ज़माना से ज़ख़्म कारी लगे

उदासियाँ हों मुसलसल तो दिल नहीं रोता

कभी-कभी हो तो ये क़ैफ़ियत भी प्यारी लगे

बज़ाहिर एक ही शब है फ़िराक़े-यार मगर

कोई गुज़ारने बैठे तो उम्र सारी लगे

इलाज इस दर्दे-दिल-आश्ना का क्या कीजे

कि तीर बन के जिसे हर्फ़े- ग़मगुसारी लगे

हमारे पास भी बैठो बस इतना चाहते हैं

हमारे साथ तबीयत अगर तुम्हारी लगे

‘फ़राज़’ तेरे जुनूँ का ख़याल है वर्ना

ये क्या ज़रूर कि वो सूरत सभी को प्यारी लगे

(दस्त=हाथ, कारी=गहरे, मुसलसल=लगातार,

क़ैफ़ियत=दशा, बज़ाहिर=प्रत्यक्षत:, शब=रात्रि,

फ़िराक़=जुदाई, दर्दे-दिल-आश्ना=दर्द को जानने

वाले दिल का, हर्फ़े- ग़मगुसारी=सहानुभूति के

शब्द, जुनूँ=उन्माद)

हमदर्द
ऐ दिल उन आँखों पर न जा

जिनमें वफ़ूरे-रंज से

कुछ देर को तेरे लिए

आँसू अगर लहरा गए

ये चन्द लम्हों की चमक

जो तुझको पागल कर गई

इन जुगनुओं के नूर से

चमकी है कब वो ज़िन्दगी

जिसके मुक़द्दर में रही

सुबहे-तलब से तीरगी

किस सोच में गुमसुम है तू

ऐ बेख़बर! नादाँ न बन

तेरी फ़सुर्दा रूह को

चाहत के काँटों की तलब

और उसके दामन में फ़क़त

हमदर्दियों के फूल हैं

(वफ़ूरे-रंज=दु:खों की बहुतायत,

तीरगी=अँधेरा, फ़सुर्दा=उदास,

फ़क़त=केवल)

ख़्वाब
वो चाँद जो मेरा हमसफ़र था

दूरी के उजाड़ जंगलों में

अब मेरी नज़र से छुप चुका है

इक उम्र से मैं मलूलो-तन्हा

ज़ुल्मात की रहगुज़ार में हूँ

मैं आगे बढ़ूँ कि लौट जाऊँ

क्या सोच के इन्तज़ार में हूँ

कोई भी नहीं जो यह बताए

मैं कौन हूँ किस दयार में हूँ

(मलूलो-तन्हा=दुखित और अकेला,

ज़ुल्मात=अँधेरों, रहगुज़ार=रास्ते,

दयार=दुनिया)

सौ दूरियों पे भी भी मिरे दिल से जुदा न थी
सौ दूरियों प’ भी मेरे दिल से जुदा न थी

तू मेरी ज़िंदगी थी मगर बेवफ़ा न थी

दिल ने ज़रा से ग़म को क़यामत बना दिया

वर्ना वो आँख इतनी ज़्यादा ख़फ़ा न थी

यूँ दिल लरज़ उठा है किसी को पुकार कर

मेरी सदा भी जैसे कि मेरी सदा न थी

बर्गे-ख़िज़ाँ जो शाख़ से टूटा वो ख़ाक़ था

इस जाँ सुपुर्दगी के तो क़ाबिल हवा न थी

जुगनू की रौशनी से भी क्या भड़क उठी

इस शहर की फ़ज़ा कि चराग़ आश्ना न थी

मरहूने आसमाँ जो रहे उनको देख कर

ख़ुश हूँ कि मेरे होंठों प’ कोई दुआ न थी

हर जिस्म दाग़-दाग़ था लेकिन ‘फ़राज़’ हम

बदनाम यूँ हुए कि बदन पर क़बा न थी

जो भी दुख याद न था याद आया
जो भी दुख याद न था याद आया

आज क्या जानिए क्या याद आया

फिर कोई हाथ है दिल पर जैसे

फिर तेरा अहदे-वफ़ा याद आया

जिस तरह धुंध में लिपटे हुए फूल

एक-इक नक़्श तिरा याद आया

ऐसी मजबूरी के आलम में कोई

याद आया भी तो क्या याद आया

ऐ रफ़ीक़ो ! सरे-मंज़िल जाकर

क्या कोई आबला-पा याद आया

याद आया था बिछड़ना तेरा

फिर नहीं याद कि क्या याद आया

जब कोई ज़ख़्म भरा दाग़ बना

जब कोई भूल गया याद आया

ये मुहब्बत भी है क्या रोग ‘फ़राज़’

जिसको भूले वो सदा याद आया

(आलम=हालत,अवस्था, रफ़ीक़=मित्र,

आबला-पाजिसके पाँवों में छाले पड़े

हुए हों)

सवाल
(‘फ़िराक़’ की तस्वीर देखकर)

एक संग- तराश जिसने बरसों

हीरों की तरह सनम तराशे

आज अपने सनमकदे में तन्हा

मजबूर, निढाल, ज़ख़्म-ख़ुर्दा

दिन रात पड़ा कराहता है

चेहरे पे उजाड़ ज़िन्दगी के

लम्हात की अनगिनत ख़राशें

आँखों के शिकस्ता मरक़दों में

रूठी हुई हसरतों की लाशें

साँसों की थकन बदन की ठंडक

अहसास से कब तलक लहू ले

हाथों में कहाँ सकत कि बढ़कर

ख़ुद-साख़्ता पैकरों को छू ले

ये ज़ख़्मे-तलब, ये नामुरादी

हर बुत के लबोंपे है तबस्सुम

ऐ तेशा-ब-दस्त देवताओ !

तख़्लीक़ अज़ीम है कि ख़ालिक़

इन्सान जवाब चाहता है

(संग- तराश=मूर्तिकार, सनम=प्रतिमाएँ,

सनमकदे=मंदिर, तन्हा=अकेला, ज़ख़्म-ख़ुर्दा=

घायल, मरक़दों=समाधियों, सकत=ताक़त,

ख़ुद-साख़्ता=स्वयं द्वारा निर्मित, पैकरों=

आकृतियों, तबस्सुम=मुस्कान, ब-दस्त=

हाथ में, तख़्लीक़=सृजन, अज़ीम=महान,

ख़ालिक़=सृजक)

ग़रीबे-शह्र के नाम
ग़रीबे-शह्र तिरी दुखभरी नवा प’ सलाम

तिरी तलब तिरी चाहत तिरी वफ़ा प’ सलाम

हरेक हर्फ़े-तमन्ना-ए-दिलरुबा प’ सलाम

हदीसे-दर्दो-सुकूते-सुख़न अदा प’ सलाम

दरीदा दिल ! तिरे आहंग साज़े-ग़म प’ निसार

गुहरफ़रोश ! तिरे रंग-ए-चश्मे-नम प’ निसार

जुनूँ का शहर है आबाद फ़स्ले-दार की ख़ैर

हरेक दिल है ग़िरेबाँ भरी बहार की ख़ैर

बुझे हैं बाम मगर शम्म-ए-रहगुज़ार की ख़ैर

तमाम उम्र तो गुज़रे इस इ‍तज़ार की ख़ैर

रुख़े-निगारो-ग़मे-यार को नज़र न लगे

गिला नहीं है मगर आँख उम्र-भर न लगे

दिलो-नज़र की शिकस्तों का क्या शुमार करें

शुमारे-ज़ख़्म अबस है निजात से पहले

कुछ और दीदा-ए-ख़ूँरंग को गुलाब करें

सबा का ज़िक्र क़यामत है रात से पहले

अभी लबों पे हिकायाते-ख़ूँ-चकीदा सही

ब-सीना रहे सिपरम-दस्तो-पा-बुरीदा सही

(ग़रीबे-शह्र=मुसाफ़िर जिसे शह्र में कोई नहीं

जानता हो, नवा=आवाज़,पुकार,

हदीसे-दर्द=दर्द की कहानी, सुकूते-सुख़न=वार्ता

की चुप्पी, दरीदा=व्यथित, निसार=न्यौछावर,

गुहरफ़रोश=जौहरी, फ़स्ले-दार=सूली की ऋतु,

ग़िरेबाँ=गला, बाम=छत, रुख़े-निगारो-ग़मे-यार=

रूपसी चेहरा और प्रियतम के दु:ख, अबस=व्यर्थ,

निजात=मुक्ति, दीदा-ए-ख़ूँरंग=रक्तरंजित आँख,

सबा=हवा, हिकायाते-ख़ूँ-चकीदा=रक्त-रंजित कथाएँ,

सिपरम-दस्तो-पा-बुरीदा=औंधा पड़ा हुआ और

हाथ-पाँव कटे हुए)

ज़ख़्म को फूल तो सरसर को सबा कहते हैं
ज़ख़्म को फूल तो सरसर को सबा कहते हैं

जाने क्या दौर है क्या लोग हैं क्या कहते हैं

क्या क़यामत है के जिन के लिये रुक रुक के चले

अब वही लोग हमें आबला-पा कहते हैं

कोई बतलाओ के इक उम्र का बिछड़ा महबूब

इत्तफ़ाक़न कहीं मिल जाये तो क्या कहते हैं

ये भी अन्दाज़-ए-सुख़न है के जफ़ा को तेरी

ग़म्ज़ा-ओ-अशवा-ओ-अन्दाज़-ओ-अदा कहते हैं

जब तलक दूर है तू तेरी परस्तिश कर लें

हम जिसे छू न सकें उस को ख़ुदा कहते हैं

क्या त’अज्जुब है के हम अहले-तमन्ना को “फ़राज़”

वो जो महरूम-ए-तमन्ना हैं बुरा कहते हैं

(सरसर=रेगिस्तान की गर्म हवा, सबा=समीर, आबला-पा=

पाँव जिनमें छाले पड़े हों, ग़म्ज़ा-ओ-अशवा=कहने का

अंदाज़, परस्तिश=पूजा, महरूम-ए-तमन्ना=इच्छा से रहित)

नींद
सर्द पलकों की सलीबों से उतारे हुए ख़्वाब

रेज़ा-रेज़ा हैं मिरे सामने शीशों की तरह

जिन के टुकड़ों की चुभन,जिनके ख़राशों की जलन

उम्र-भर जागते रहने की सज़ा देती है

शिद्दते-कर्ब से दीवाना बना देती है

आज इस क़ुर्ब के हंगाम वो अहसास कहाँ

दिल में वो दर्द न आँखों में चराग़ों का धुवाँ

और सलीबों से उतारे हुए ख़्वाबों की मिसाल

जिस्म गिरती हुई दीवार की मानिंद निढाल

तू मिरे पास सही ऐ मिरे आज़ुर्दा-जमाल

(सलीब=सूली, रेज़ा=टुकड़े, शिद्दते-कर्ब=दर्द की

अधिकता, क़ुर्ब=सामीप्य, हंगाम=भीड़, मानिंद=

भाँति, आज़ुर्दा-जमाल=पीड़ित सौंदर्य)

ख़ुशबू का सफ़र
छोड़ पैमाने-वफ़ा की बात शर्मिंदा न कर

दूरियाँ ,मजबूरियाँ,रुस्वाइयाँ, तन्हाइयाँ

कोई क़ातिल, कोई बिस्मिल, सिसकियाँ, शहनाइयाँ

देख ये हँसता हुआ मौसिम है मौज़ू-ए-नज़र

वक़्त की रौ में अभी साहिल अभी मौजे-फ़ना

एक झोंका एक आँधी,इक किरन , इक जू-ए-ख़ूँ

फिर वही सहरा का सन्नाटा, वही मर्गे-जुनूँ

हाथ हाथों का असासा, हाथ हाथों से जुदा

जब कभी आएगा हमपर भी जुदाई का समाँ

टूट जाएगा मिरे दिल में किसी ख़्वाहिश का तीर

भीग जाएगी तिरी आँखों में काजल की लकीर

कल के अंदेशों से अपने दिल को आज़ुर्दा न कर

देख ये हँसता हुआ मौसिम, ये ख़ुशबू का सफ़र

(पैमाने-वफ़ा=वफ़ादारी का संकल्प, बिस्मिल=घायल,

मौज़ू=विषय, साहिल=किनारा,तट, मौजे-फ़ना=मृत्यु-लहर,

जू-ए-ख़ूँ=ख़ून की नदी, मर्गे-जुनूँ=दीवानेपन की मृत्यु,

असासा=पूँजी, आज़ुर्दा=पीड़ित)

अब के बरस भी
लब तिश्न-ओ-नोमीद हैं हम अब के बरस भी

ऐ ठहरे हुए अब्रे-करम अब के बरस भी

कुछ भी हो गुलिस्ताँ में मगर कुंजे- चमन में

हैं दूर बहारों के क़दम अब के बरस भी

ऐ शेख़-करम ! देख कि बा-वस्फ़े-चराग़ाँ

तीरा है दरो-बामे-हरम अब के बरस भी

ऐ दिले-ज़दगान मना ख़ैर, हैं नाज़ाँ

पिंदारे-ख़ुदाई पे सनम अब के बरस भी

पहले भी क़यामत थी सितमकारी-ए-अय्याम

हैं कुश्त-ए-ग़म कुश्त-ए-ग़म अब के बरस भी

लहराएँगे होंठों पे दिखावे के तबस्सुम

होगा ये नज़ारा कोई दम अब के बरस भी

हो जाएगा हर ज़ख़्मे-कुहन फिर से नुमायाँ

रोएगा लहू दीद-ए-नम अबके बरस भी

पहले की तरह होंगे तही जामे-सिफ़ाली

छलकेगा हर इक साग़रे-जम अब के बरस भी

मक़्तल में नज़र आएँगे पा-बस्त-ए-ज़ंजीर

अहले-ज़रे-अहले-क़लम अब के बरस भी

(तिश्न-ओ-नोमीद=प्यासा और निराश, अब्रे-करम=

दया के बादल, बा-वस्फ़े=बावजूद, तीरा=अँधेरा,

दरो-बामे-हरम=काबे के द्वार व छत, ज़दगान=आहत,

पिंदारे-ख़ुदाई=ईश्वरीय गर्व, सितमकारी-ए-अय्याम=

समय का अत्याचार, कुश्त-ए-ग़म=दुख के मारे हुए,

तबस्सुम=मुस्कुराहट, ज़ख़्मे-कुहन=गहरा घाव, तही=

ख़ाली, जामे-सिफ़ाली=मिट्टी के मद्य-पात्र, साग़रे-जम=

जमशेद का मद्यपात्र, मक़्तल=वध-स्थल, पा-बस्त-ए-

ज़ंजीर=बेड़ियों में जकड़े पैर, अहले-ज़रे-अहले-क़लम=

विद्वान व लेखक)

तुझ से मिल कर भी कुछ ख़फ़ा हैं हम
तुझ से मिल कर भी कुछ ख़फ़ा हैं हम

बेमुरव्वत नहीं तो क्या हैं हम

हम ग़मे-क़ारवाँ में बैठे थे

लोग समझे शिकस्ता-पा हैं हम

इस तरह से हमें रक़ीब मिले

जैसे मुद्दत के आश्ना हैं हम

राख हैं हम अगर ये आग बुझी

जुज़ ग़मे-दोस्त और क्या हैं हम

ख़ुद को सुनते हैं इस तरह जैसे

वक़्त की आख़िरी सदा हैं हम

क्यों ज़माने को दें ‘फ़राज़’ इल्ज़ाम

वो नहीं हैं तो बे-वफ़ा हैं हम

(बेमुरव्वत=निष्ठुर, ग़मे-क़ारवाँ=यात्री-दल

का दु:ख, शिकस्ता-पा=थके हुए, रक़ीब=

प्रतिद्वन्द्वी, आश्ना=परिचित, सदा=आवाज़)

तुझे उदास किया ख़ुद भी सोग़वार हुए
तुझे उदास किया ख़ुद भी सोगवार हुए

हम आप अपनी महब्बत में शर्मसार हुए

बला की रौ थी नदीमाने-आबला-पा को

पलट के देखना चाहा कि ख़ुद ग़ुबार हुए

गिला उसी का किया जिससे तुझ पे हर्फ़ आया

वगरना यूँ तो सितम हम प’ बे-शुमार हुए

ये इंतकाम भी लेना था ज़िन्दगी को अभी

जो लोग दुश्मने-जाँ थे वो ग़मगुसार हुए

हज़ार बार किया तर्क़े-दोस्ती का ख़याल

मगर ‘फ़राज़’ पशेमाँ हरेक बार हुए

(नदीमाने-आबला-पा=पाँव के छाले वालों के

पास बैठने वाला, हर्फ़ आया=इल्ज़ाम आया,

वगरना=अन्यथा, इंतकाम=बदला, तर्क़े-दोस्ती=

मित्रता तोड़ना, पशेमाँ=लज्जित)

वही जुनूँ है वही क़ूच-ए-मलामत है
वही जुनूँ है वही क़ूच-ए-मलामत है

शिकस्ते-दिल प’ भी अहदे-वफ़ा सलामत है

ये हम जो बाग़ो-बहाराँ का ज़िक्र करते हैं

तो मुद्दआ वो गुले-तर वो सर्वो-क़ामत है

बजा ये फ़ुर्सते-हस्ती मगर दिले-नादाँ

न याद कर के उसे भूलना क़यामत है

चली चले यूँ ही रस्मे-वफ़ा-ओ-मश्क़े-सितम

कि तेगे़-यारो-सरे-दोस्ताँ सलामत है

सुकूते-बहर से साहिल लरज़ रहा है मगर

ये ख़ामुशी किसी तूफ़ान की अलामत है

अजीब वज़्अ का ‘अहमद फ़राज़’ है शाइर

कि दिल दरीदा मगर पैरहन सलामत है

(क़ूच-ए-मलामत=निंदा वाली गली, सलामत=

सुरक्षित, मुद्दआ=उद्देश्य, गुले-तर=ताज़ा फूल,

सर्व जैसे सुंदर डील-डौल वाला, फ़ुर्सते-हस्ती=

जीवनकाल, मश्क़े-सितम=अत्याचार का अभ्यास,

सुकूते-बहर=महासागर का मौन, साहिल=तट,

अलामत=लक्षण, वज़्अ=शैली, दरीदा=दु:खी,

पैरहन=वस्त्र)

पैग़ाम्बर
मैं कोई किरनों का सौदागर नहीं

अपने-अपने दुख की तारीकी लिए

तुम आ गए क्यों मेरे पास

ग़म के अंबारों को काँधे पर धरे

बोझल सलीबों की तरह

आशुफ़्ता-मू, अफ़्सुर्दा रू, ख़ूनी लिबास

होंठ महरूमे-तकल्लुम पर सरापा इल्तिमास

इस तमन्ना पर कि तुमको मिल सके

ग़म के अंबारों के बदले

मुस्कुराहट की किरन-जीने की आस

मैं मगर किरनों का सौदागर नहीं

मैं नहीं जोहर-शनास

सूरते-अंबोहे-दरीयूजा-गराँ

सबके दिल हैं क़हक़हों से चूर

लेकिन आँख से आँसू रवाँ

सब के सीनों में उम्मीदों के चरागाँ

और चेहरों पर शिकस्तों का धुआँ

ज़िन्दगी सबसे गुरेज़ाँ

सू-ए-मक़्तल सब रवाँ

सब नहीफ़ो-नातवाँ

सब के सब इक दूसरे से हमसफ़र

इक-दूसरे से बदगुमाँ

सब की आँखों में ख़याले-मर्ग से ख़ौफ़ो-हिरास

मेरी बातों से मेरी आवाज़ से

तुमने ये जाना कि मैं भी

ले के आया हूँ तुम्हारे वास्ते वो मोजज़े

जिनसे भर जाएँगे पल-भर में तुम्हारे

अनगिनत सदियों के ला-तादाद ज़ख़्म

दम बख़ुद साँसों को ठहराए हुए बेजान-जिस्म

मुंतज़िर हैं क़ुम-ब-इज़्नी की सदा-ए-सहर के

एशिया पैग़म्बरों की सरज़मीं

और तुम उसके ज़बूँ-क़िस्मत मक़ीं तीरा-जबीं

मन्नो-सलवा के लिए दामन-कुशा

क़हत-ख़ुर्दा ज़ारो-बीमारो-हज़ीं

सिर्फ़ तक़दीरो-तवक्कुल पर यक़ीं

तुम को शीरीने-तलब की चाह लेकिन बेसतूने-ग़म की सिल को

चीरने का हौसला, यारा नहीं

तुम यदे-बेज़ा के क़ाइल

बाज़ू-ए-फ़रहाद की क़ूव्वत से बहरावर नहीं

तुम कि हो कोहा गिरफ़्ता…ज़िंदगी से दूर

मुर्दा साहिरों की बेनिशाँ क़ब्रों के सज्जादानशीं

ख़ाकदाँ की उस गुले-तारीक का

मैं भी इक पैकर हूँ पैकरगर नहीं

मैं कोई किरनों का सौदागर नहीं

रेत के तपते हुए टीलों पे इस्तादा हो तुम

साया-ए-अब्रे-रवाँ

को देखते रहना तुम्हारा जुज़्बे-दीं

सात कुलज़म मौजज़न चारों तरफ़

और तुम्हारे बख़्त में शबनम नहीं

अपने अपने दुख की बोझल गठरियों को तुमने खोला है कभी?

अपने हमजिन्सों

के सीनों को टटोला है कभी ?

सब की रूहें गर्स्ना… सब की मता-ए-दर्द में

दूसरों का ख़ून पीने की हवस

एक का दुख दूसरों से कम नहीं

एक का दुख तिश्नगी, बेचारगी

दूसरों का दुख मगर इफ़्राते-मै …दीवानगी

प्यास और नश्शे का दुख

अपने अंबारों से मिल कर छाँट लो

प्यास और नश्शे का दुख,इक दूसरे में बाँट लो

फिर तुम्हारी ज़िन्दगी शायद न हो

शाकी-ए-अर्शे-बरीं-ओ-रहमते-उल आलमीं

मैं कोई किरनों का सौदागर नहीं

(तारीकी=अँधेरा, आशुफ़्ता-मू=शोकग्रस्त,

अफ़्सुर्दा रू=उदास चेहरा, महरूमे-तकल्लुम=

बोलने से वंचित, सरापा=सर से पाँवों तक,

इल्तिमास=प्रार्थना, जोहर-शनास=गुण-पारखी,

अंबोहे-दरीयूजा-गराँ=भिखारियों का समुदाय,

रवाँ=बहते हुए, गुरेज़ाँ=भागते हुए, सू-ए-मक़्तल=

वधस्थल की ओर, नहीफ़ो-नातवाँ=क्षीण व

निर्बल, बदगुमाँ=रुष्ट, मर्ग=मृत्यु, ख़ौफ़ो-हिरास=भय,

मोजज़े=चमत्कार, मुंतज़िर=प्रतीक्षारत, क़ुम-ब-इज़्नी=

मेरी आज्ञा से ही उठ, सदा-ए-सहर=प्रात: की पुकार,

ज़बूँ-क़िस्मत मक़ीं=दुर्भाग्य से रहने वाले, तीरा-जबीं=

बदक़िस्मत, मन्नो-सलवा= मीठा पदार्थ तथा बटेर,

दामन-कुशा=झोली फैलाए हुए, यदे-बेज़ा=सफ़ेद

चमकता हुआ हाथ, क़ाइल=मानने वाले, क़ूव्वत=

बहरावर=सौभाग्यशाली, कोहा गिरफ़्ता=ऊँट की

कमर पकड़े हुए हुए, साहिरों=जादूगरों, सज्जादानशीं=

सजदा करने वाले,उत्तराधिकारी, ख़ाकदाँ=खाक

डालने के पात्र, गुले-तारीक=रजनीगंधा, पैकर=

आकृति, इस्तादा=सीधे खड़े हुए, साया-ए-अब्रे-

रवाँ=चलते हुए बादलों की छाँव, जुज़्बे-दीं=धर्म

का अंग, कुलज़म=समुद्र, मौजज़न=तरंगित,

बख़्त=भाग्य, शबनम=ओस, मता-ए-दर्द=दुखों

की पूँजी, हवस=लोभ लालच, तिश्नगी=प्यास,

इफ़्राते-मै=मद्य का प्राचुर्य, शाकी-ए-अर्शे-बरीं-ओ-

रहमते-उल आलमीं=पैगंबर-इस्लाम, उच्च

आसमान और सारे संसार पर कृपा करने

वाले अर्थात ईश्वर से शिकायत करने वाले)

रोज़ की मसाफ़त से चूर हो गए दरिया
रोज़ की मसाफ़त से चूर हो गये दरिया

पत्थरों के सीनों पे थक के सो गये दरिया

जाने कौन काटेगा फ़स्ल लालो-गोहर की

रेतीली ज़मीनों में संग बो गये दरिया

ऐ सुहाबे-ग़म ! कब तक ये गुरेज़ आँखों से

इंतिज़ारे-तूफ़ाँ में ख़ुश्क हो गये दरिया

चाँदनी से आती है किसको ढूँढने ख़ुश्बू

साहिलों के फूलों को कब से रो गये दरिया

बुझ गई हैं कंदीलें ख़्वाब हो गये चेहरे

आँख के जज़ीरों को फिर डुबो गये दरिया

दिल चटान की सूरत सैले-ग़म प’ हँसता है

जब न बन पड़ा कुछ भी दाग़ धो गये दरिया

ज़ख़्मे-नामुरादी से हम फ़राज़ ज़िन्दा हैं

देखना समुंदर में ग़र्क़ हो गये दरिया

(मसाफ़त=यात्रा, लालो-गोहर=हीरे मोतियों

की खेती, संग=पत्थर, सुहाबे-ग़म=दुख के

मित्रो, गुरेज़=उपेक्षा, कंदीलें=दीपिकाएँ,

जज़ीरों=टापुओं, सैले-ग़म=दुखों की बाढ़)

तू कि अंजान है इस शहर के अंदाज़ समझ
तू कि अनजान है इस शहर के आदाब समझ

फूल रोए तो उसे ख़ंद-ए-शादाब समझ

कहीं आ जाए मयस्सर तो मुक़द्दर तेरा

वरना आसूदगी-ए-दहर को नायाब समझ

हसरते-गिरिया में जो आग है अश्कों में नहीं

ख़ुश्क आँखों को मेरी चश्मा-ए-बेआब समझ

मौजे-दरिया ही को आवार-ए-सदशौक़ न कह

रेगे-साहिल को भी लबे-तिश्न-ए-सैलाब समझ

ये भी वा है किसी मानूस किरन की ख़ातिर

रोज़ने-दर को भी इक दीदा-ए-बेख़्वाब समझ

अब किसे साहिले-उम्मीद से तकता है ‘फ़राज़’

वो जो इक किश्ती-ए-दिल थी उसे ग़र्क़ाब समझ

(आदाब=शिष्टाचार, ख़ंद-ए-शादाब=प्रफुल्ल मुस्कान,

मयस्सर=प्राप्त हो जाए, आसूदगी-ए-दहर=संतोष का

युग, नायाब=अप्राप्य, हसरते-गिरिया=रोने की इच्छा,

आवार-ए-सदशौक़=कुमार्गी, रेगे-साहिल=तट की मिट्टी,

लबे-तिश्न-ए-सैलाब=बाढ़ के लिए तरसते होंठ, वा=खुला

हुआ, मानूस=परिचित, रोज़ने-दर=द्वार के छिद्र, ग़र्क़ाब=

डूबी हुई)

ख़ुदा-ए-बरतर
ख़ुदा-ए-बरतर

मिरी महब्बत

तिरी महब्बत की रिफ़अतों से अज़ीमतर है

तिरी महब्बत का दरख़ूरे-एतना

फ़क़त बेकराँ मुंदर

कि जिसकी ख़ातिर

सदा तिरी रहमतों के बादल

कभी किसी आबशार की नग़्मगी के मोती

कभी किसी आबजू के आँसू

कभी किसी झील के सितारे

कहीं से शबनम, कहीं से चश्मे, कहीं से दरिया उड़ा के लाए

कि तिरे महबूब को जलालो-जमाल बख़्शें

तिरी महब्बत तो उस शहनशाह की तरह है

जो दूसरों के हुनर से, ख़ूने-जिगर से

अपनी वफ़ा को दवाम बख़्शे

मगर मिरी बे-बिसात चाहत

फ़क़त मिरे आँसुओं से

मेरे लहू से… मेरी ही आबरू से

रही है ज़िंदा

अगर्चे उस बेबज़ाअती ने

मुझे हमेशा शिकस्त दी है

मगर ये नाकामी-ए-तमन्ना भी

इस महब्बत से कामराँतर, अज़ीमतर है

जो अपनी सित्वत के बल पर

औरों की आहो-ज़ारी से

अपने जज़्ब-ए-वफ़ा की तश्हीर चाहती है

मेरी मुहब्बत ने

जो भी नाम-ए-हबीब

से कर दिया मानून

वो हर्फ़ मेरा है, मेरा अपना है

ऐ ख़ुदा-ए-बुज़ुर्गो-बरतर !

(ख़ुदा-ए-बरतर=ईश्वर महान, रिफ़अतों=

ऊँचाइयों, दरख़ूरे-एतना=सहानुभुति,

बेकराँ=असीम, आबशार=झरना, आबजू=

नदी, जलालो-जमाल=प्रताप और सौंदर्य,

दवाम=स्थायित्व, बे-बिसात=सामर्थ्य से

परे, बेबज़ाअती=निर्धनता, कामराँतर=

सफलतर, सित्वत=दबदबा, आहो-ज़ारी=

विलाप, तश्हीर=विज्ञापन, नाम-ए-हबीब=

प्रियतम का पत्र, मानून=अर्थपूर्ण)

क़ुर्ब जुज़ दाग़े-जुदाई नही‍ देता कुछ भी
क़ुर्ब जुज़ दागे-जुदाई नहीं देता कुछ भी

तू नहीं है तो दिखाई नहीं देता कुछ भी

दिल के ज़ख़्मों को न रो दोस्त का एहसान समझ

वरना वो दस्ते-हिनाई नहीं देता कुछ भी

क्या इसी ज़हर को त्तिर्याक़ समझकर पी लें

नासेहों को तो सुझाई नहीं देता कुछ भी

ऐसा गुम हूँ तेरी यादों के बियाबानों में

दिल न धड़के तो सुनाई नहीं देता कुछ भी

सोचता हूँ तो हर इक नक़्श में दुनिया आबाद

देखता हूँ तो दिखाई नहीं देता कुछ भी

यूसुफ़े-शे’र को किस मिस्र में लाए हो ‘फ़राज़’

ज़ौक़े-आशुफ़्ता न वाई नहीं देता कुछ भी

(क़ुर्ब=सामीप्य, जुज़=सिवाए, दस्ते-हिनाई=मेंहदी

वाले हाथ, त्तिर्याक़=विषहर, नासेह=उपदेशक,

यूसुफ़े-शे’र=काव्य के यूसुफ़, ज़ौक़े-आशुफ़्ता

न वाई=अनर्थ भाषी की अभिरुचि)

दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला

वही अन्दाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला

अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मेरा

सख़्त नादिम है मुझे दाम में लानेवाला

सुबह-दम छोड़ गया निक़हते-गुल की सूरत

रात को ग़ुंचा-ए-दिल में सिमट आने वाला

क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उससे

वो जो इक शख़्स है मुँह फेर के जानेवाला

तेरे होते हुए आ जाती थी सारी दुनिया

आज तन्हा हूँ तो कोई नहीं आनेवाला

मुंतज़िर किसका हूँ टूटी हुई दहलीज़ पे मैं

कौन आयेगा यहाँ कौन है आनेवाला

मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते

है कोई ख़्वाब की ताबीर बतानेवाला

क्या ख़बर थी जो मेरी जान में घुला है इतना

है वही मुझ को सर-ए-दार भी लाने वाला

तुम तक़ल्लुफ़ को भी इख़लास समझते हो “फ़राज़”

दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलानेवाला

(नादिम=लज्जित, दाम=जाल, निक़हते-गुल=गुलाब की

ख़ुश्बू की तरह, ग़ुंचा=कली, मरासिम=मेल-जोल, मुंतज़िर=

प्रतीक्षारत, ख़्वाब की ताबीर=स्वप्नफल, सर-ए-दार=सूली

तक, तक़ल्लुफ़=औपचारिकता, इख़लास=प्रेम)

ये आलम शौक़ का देखा न जाए
ये आलम शौक़ का देखा न जाए

वो बुत है या ख़ुदा देखा न जाए

ये किन नज़रों से तूने आज देखा

कि तेरा देखना देखा न जाए

हमेशा के लिए मुझसे बिछड़ जा

ये मंज़र बारहा देखा न जाए

ग़लत है जो सुना पर आज़मा कर

तुझे ऐ बेवफ़ा देखा न जाए

ये महरूमी नहीं पासे-वफ़ा है

कोई तेरे सिवा देखा न जाए

यही तो आश्ना बनते हैं आख़िर

कोई ना-आश्ना देखा न जाए

‘फ़राज़’ अपने सिवा है कौन तेरा

तुझे तुझसे जुदा देखा न जाए

(आलम=दशा, मंज़र=दृष्य, बारहा=

बार-बार, महरूमी=वंचितता,असफलता,

आश्ना=परिचित)

ख़ुदग़रज़
ऐ दिल ! अपने दर्द के कारन तू क्या-क्या बेताब रहा

दिन के हंगामों में डूबा रातों को बेख़्वाब रहा

लेकिन तेरे ज़ख़्म का मरहम तेरे लिए नायाब हा

फिर इक अनजानी सूरत ने तेरे दुख के गीत सुने

अपनी सुन्दरता की की किरनों से चाहत के ख़्वाब बुने

ख़ुद काँटॊं की बाढ़ से गुज़री तेरी राहों में फूल चुने

ऐ दिल जिसने तेरी महरूमी के दाग़ को धोया था

आज उसकी आँखें पुरनम थीं और तू सोच में खोया थ

देख पराए दुख की ख़ातिर तू भी कभी यूँ रोया था ?

(बेताब=व्याकुल, नायाब=दुर्लभ, महरूमी=निराशा,वंचितता,

पुरनम=भीगी हुईं)

वाबस्तगी
आ गई फिर वही पहाड़-सी रात

दोश पर हिज्र की सलीब लिए

हर सितारा हलाके-सुबहे-तलब

मंज़िले-ख़्वाहिशे-हबीब लिए

इससे पहले भी शामे-वस्ल के बाद

कारवाँ-ए-दिलो-निगाह चला

अपनी-अपनी सलीब उठाए हुए

हर कोई सू-ए-क़त्लगाह चला चला

कितनी बाहों की टहनियाँ टूटीं

कितने होंठों के फूल चाक हुए

कितनी आँखों से छिन गए मोती

कितने चहरों के रंग ख़ाक हुए

फिर भी वीराँ नहीं है कू-ए-मुराद,

फिर भी शब ज़िंदादार हैं ज़िंदा

फिर भी रौशन है बज़्मे-रस्मे-वफ़ा

फिर भी हैं कुछ चराग़ ताबिंदा

वही क़ातिल जो अपने हाथों से

हर मसीहा को दार करते हैं

फिर उसी की मुराज़अत के लिए

हश्र तक इंतज़ार करते हैं

(वाबस्तगी=बँधाव, दोश=काँधे, सलीब=

चौपारे के आकाए की सूली, हलाक=

घायल, हबीब=प्रिय, वस्ल=मिलन, चाक=

विदीर्ण, कू-ए-मुराद=इच्छाओं की नगरी,

ताबिंदा=प्रकाशमान, मुराज़अत=प्रत्यागमन,

हश्र=महाप्रलय)

अहले-ग़म जाते हैं नाउम्मीद तेरे शहर से
अहले-ग़म जाते हैं ना-उम्मीद तेरे शह्र से

जब नहीं तुझसे तो क्या उम्मीद तेरे शह्र से

दीदनी थी सादगी उनकी जो रखते थे कभी

ऐ वफ़ा-ना-आश्ना उम्मीद तेरे शह्र से

तेरे दीवानों के हक़ में ज़ह्रे-क़ातिल हो गई

ना-उमीदी से सिवा उम्मीद तेरे शह्र से

पा-ब-जौलाँ दिल-गिरफ़्ता फिर रहे हैं कू-ब-कू

हम जो रखते थे सिवा उम्मीद तेरे शह्र से

तू तो बेपरवा ही था अब लोग भी पत्थर हुए

या हमें तुझसे थी या उम्मीद तेरे शह्र से

रास्ते क्या-क्या चमक जाते हैं ऐ जाने-‘फ़राज़’

जब भी होती है ज़रा उम्मीद तेरे शह्र से

(अहले-ग़म=दुखी लोग, दीदनी=दर्शनीय, ज़ह्रे-क़ातिल=

वधिक का विष, सिवा=अधिक, पा-ब-जौलाँ=पैरों में

बेड़ियाँ डाले हुए, कू-ब-कू=यहा वहाँ)

तम्सील
कितनी सदियों के इंतज़ार के बाद

क़ुर्बते-यक-नफ़स नसीब हुई

फिर भी तू चुप उदास कम-आमेज़

ऐ सुलगते हुए चराग़ भड़क

दर्द की रौशनी को चाँद बना

कि अभी आँधियों का शोर है तेज़

एक पल मर्गे-जावेदाँ का सिला

अजनबीयत के ज़ह्र में मत घोल

मुझको मत देख लेकिन आँख तो खोल

(तम्सील=उपमा, क़ुर्बते-यक-नफ़स=घनिष्टता,

कम-आमेज़=मिलने जुलने से कतराने वाला,

मर्गे-जावेदाँ=अमर,हमेशा क़ायम रहने वाली

मृत्यु, सिला=बदला)

आँखों में चुभ रहे हैं दरो-बाम के चराग़
आँखों में चुभ रहे हैं दरो-बाम के चराग़

जब दिल ही बुझ गया हो तो किस काम के चराग़

क्या शाम थी कि जब तेरे आने की आस थी

अब तक जला रहे हैं तेरे नाम के चराग़

शायद कभी ये अर्स-ए-यक-शब न कट सके

तू सुब्ह की हवा है तो हम शाम के चराग़

इस तीरगी में लग्ज़िशे-पा भी है ख़ुदकुशी

ऐ रहरवाने-शौक़ ज़रा थाम के चराग़

हम क्या बुझे कि जाती रही यादे रफ़्तगाँ

शायद हमीं थे गर्दिशे-अय्याम के चराग़

हम दरख़ुरे-हवा-ए-सितम भी नहीं ‘फ़राज़’

जैसे मज़ार पर किसी गुमनाम के चिराग़

(दरो-बाम=द्वार व छत, अर्स-ए-यक-शब=एक

रात का समय, तीरगी=अँधेरे, लग्ज़िशे-पा=

पाँव की डगमगाहट, रहरवाने-शौक़=अभिलाषी,

रफ़्तगाँ=पूर्वजों की याद, गर्दिशे-अय्याम=समय-

चक्र, दरख़ुरे-हवा-ए-सितम=हवाओं के अत्याचार

से डरने वाले, मज़ार=समाधि)

नज़र की धूप में साये घुले हैं शब की तरह
नज़र की धूप में साये घुले हैं शब की तरह

मैं कब उदास नहीं था मगर न अब की तरह

फिर आज शह्रे-तमन्ना की रहगुज़ारों से

गुज़र रहे हैं कई लोग रोज़ो-शब की तरह

तुझे तो मैंने बड़ी आरज़ू से चाहा था

ये क्या कि छोड़ चला तू भी और सब की तरह

फ़सुर्दगी है मगर वज्हे-ग़म नहीं मालूम

कि दिल पे बोझ-सा है रंजे-बेसबब की तरह

खिले तो अबके भी गुलशन में फूल हैं लेकिन

न मेरे ज़ख़्म की सूरत न तेरे लब की तरह

(शह्रे-तमन्ना=इच्छाओं का नगर, फ़सुर्दगी=

उदासी, वज्हे-ग़म=दु:ख का कारण,

रंजे-बेसबब=अकारण दु:ख)

शुहदा-ए-जंगे-आज़ादी के नाम
तुमने जिस दिन के लिए अपने जिगर चाक किए

सौ बरस बाद सही दिन तो वो आया आख़िर

तुमने जिस दश्त-ए-तमन्ना को लहू से सींचा

हमने उसको गुलो-गुलज़ार बनाया आख़िर

नस्ल-दर-नस्ल रही जहदे-मुसलसल की तड़प

एक इक बूँद ने तूफ़ान उठाया आख़िर

तुमने इक ज़र्ब लगाई थी हिसारे-शब पर

हमने हर ज़ुल्म की दीवार को ढाया आख़िर

वक़्त तारीक ख़राबों का वो अफ़्रीत है जो

हर घड़ी ताज़ा चराग़ों का लहू पीता है

ज़ुल्फ़े-आज़ादी के हर तार से दस्ते-अय्याम

हुर्रियतकेश जवानों के क़फ़न सीता है

तुमसे जिस दौरे-अलमनाक का आग़ाज़ हुआ

हम पे वो अहदे-सितम एक सदी बीता है

तुमने जो जंग लड़ी नंगे-वतन की ख़ातिर

माना उस जंग में तुम हारे अदू जीता है

लेकिन ऐ जज़्बे-मुक़द्दस के शहीदाने-अज़ीम

कल की हार अपने लिए जीत की तम्हीद बनी

हम सलीबों पे चढ़े ज़िन्दा गड़े फिर भी बढ़े

वादी-ए-मर्ग भी मंज़िल-गहे-उम्मीद बनी

हाथ कटते रहे पर मशअलें ताबिन्दा रहीं

रस्म जो तुमसे चली बाइसे-तक़्लीद बनी

शब के सफ़्फ़ाफ़ ख़ुदाओं को ख़बर हो कि न हो

जो किरन क़त्ल हुई शोला-ए-ख़ुर्शीद बनी

(शुहदा-ए-जंगे-आज़ादी= की क्रांति में वीरगति

को प्राप्त होने वालों के नाम,दश्त-ए-तमन्ना=इच्छा

के उद्यान, गुलो-गुलज़ार=हरा-भरा, जहदे-मुसलसल=

निरंतर प्रयत्न, ज़र्ब=चोट, हिसारे-शब=काला घेरा,

अत्याचार, अफ़्रीत=देव,जिन्न, दस्ते-अय्याम=समय

के हाथ, हुर्रियतकेश=स्वतन्त्रता प्रेमी, दौरे-अलमनाक=

दु:ख के समय, आग़ाज़=प्रारम्भ, अहदे-सितम=

अत्याचार का समय, अदू=शत्रु, जज़्बे-मुक़द्दस=पवित्र

भावना, शहीदाने-अज़ीम=महान शहीदो, तम्हीद=

भूमिका, वादी-ए-मर्ग=मृत्यु की घाटी, मंज़िल-गहे-

उम्मीद=आशा की चरम सीमा, बाइसे-तक़्लीद=स्वीकार

करने का कारण, शब के सफ़्फ़ाफ़=अत्याचारी,

शोला-ए-ख़ुर्शीद=सूर्य का टुकड़ा)

पयंबरे-मश्रिक
वो शब कि जिसमें तेरा शो’ला-ए-नवा लपका

ढली तो मातमे-यक-शह्रे-आरज़ू भी हुआ

वो रुत कि जिसमें तेरा नग़्मा-ए-जुनूँ गूँजा

कटी तो साज़े-तमन्ना लहू-लहू भी हुआ

यही बहुत था कोई मंज़िले-तलब तो मिली

कहीं तो मुज़्दा-ए-क़ुर्बे-हरीमे-यार मिला

हज़ार शुक्र कि तअने-बरहनगी तो गया

अगर्चे-पैरहने-शौक़ तार-तार मिला

ख़याल था कि शिकस्ते-क़फ़स के बाद भी हम

तिरे पयाम के रौशन चराग़ देखेंगे

रहेगा पेशे-नज़र तेरा आईना जिसमें

हम अपने माज़ी-ओ-फ़र्दा के दाग़ देखेंगे

मगर जो हाल तुलू-ए-सहर के बाद हुआ

जो तेरे दर्स की तहक़ीर हमने देखी है

बयाँ करें भी तो किससे, कहें तो किससे कहें

जो तेरे ख़्वाब की ताबीर हमने देखी है

मुदब्बिरों ने वफ़ा के चराग़ गुल करके

दराज़ दस्ती-ए-जाहो-हशम को आम किया

मुफ़क़्क़िरों ने फ़क़ीहों की दिल-दिही के लिए

ख़ुदी की मय में तसव्वुफ़ का ज़ह्र घोल दिया

वो कम-नज़र थे कि नादान थे कि शोब्दागर

जो तुझको जिन्नो-मलाइक का तर्जुमाँ समझे

तिरी नज़र में हमेशा ज़मीं के ज़ख्म रहे

मगर ये तुझको मसीहा-ए-आस्माँ समझे

उरूज़े-अज़्मते-आदम था मुद्दआ तेरा

मगर ये लोग नक़ूशे-फ़ना उभारते हैं

किस आस्माँ पे है तू ऐ पयम्बरे-मश्रिक

ज़मीं के ज़ख़्म तुझे आज भी पुकारते हैं

(पयंबरे-मश्रिक=पूर्व के दूत, शो’ला-ए-नवा=

स्वर की आग, मातमे-यक-शह्रे-आरज़ू=

मनोकामना का शोक, नग़्मा-ए-जुनूँ=मस्ती

का गीत, मुज़्दा-ए-क़ुर्बे-हरीमे-यार=प्रेयसी के

निवास के सामीप्य का शुभ संदेश, तअने-=

बरहनगी=नग्न होने का उलाहना, पैरहने-शौक़=

चाहत का वस्त्र, क़फ़स=जाल, पयाम=संदेश,

माज़ी-ओ-फ़र्दा=भूत और भविष्य, तुलू-ए-सहर=

सूर्योदय, दर्स=उपदेश, तहक़ीर=अनादर, ताबीर=

फल, मुदब्बिरों=राजनीतिज्ञों, दराज़=लंबा,

दस्ती-ए-जाहो-हशम=नौकरशाही के हाथों,

सर्व-व्यापक, मुफ़क़्क़िरों=चिंतकों, फ़क़ीहों=

मुल्ला-मौलवियों, तसव्वुफ़=सूफ़ीज़्म,अध्यात्मवाद,

शोब्दागर=धुले हुए, जिन्नो-मलाइक=जिन्न-फ़रिश्ते,

उरूज़े-अज़्मते-आदम=मानव की महानता का उत्कर्ष,

मुद्दआ=उद्देश्य, नक़ूशे-फ़ना=मृत्यु-चिह्न)

बतर्जे-बेदिल
जुम्बिशे-मिज़्गाँ कि हरदम दिलकुशा-ए-ज़ख़्म है

जो नज़र उठती है गोया आश्ना-ए-ज़ख़्म है

देखना आइने-मक़तल दिलफ़िगाराने-वफ़ा

इल्तिफ़ाते-तेग़े-क़ातिल ख़ूंबहा-ए-ज़ख़्म है

बस कि जोशे-फ़स्ले -गुल से खुल गए सीनों के चाक

खंद-ए-गुल भी हम आहंगे-सदा-ए-ज़ख़्म है

हमनफ़स हर आस्तीं में दश्ना-पिन्हाँ है तो क्या

हम को पासे-ख़ातिरे-याराँ बज़ा-ए-ज़ख़्म है

आ तमाशा कर कभी ऐ बे-नियाज़े-शामे-ग़म

दीदा-ए-बे-ख़्वाब भी चाक़े-क़बा-ए-ज़ख़्म है

किस से जुज़-दीवारे-मिज़्गाँ सैले-दर्दे-दिल रुके

साहिले-दरिया-ए-ख़ूँ लब आश्ना-ए-ज़ख़्म है

(बतर्जे-बेदिल=फ़ारसी का प्रसिद्ध शाइर जो अपनी

मुश्किलपसन्दी के लिए जाना जाता था, जुम्बिशे-

मिज़्गाँ=पलकों का झपकना, दिलकुशा-ए-ज़ख़्म=घाव

की रमणीयता, आश्ना=परिचित, आइने-मक़तल=क़त्ल

के वक़्त, दिलफ़िगार=घायल हृदय, इल्तिफ़ात=कटाक्ष,

ख़ूंबहा=ख़ून की क़ीमत, खंद-ए-गुल=फूल की मुस्कान,

आहंगे-सदा-ए-ज़ख़्म=घाव की पुकार का साथी, हमनफ़स=

साथी, दश्ना-पिन्हाँ=ख़ंजर छिपा हुआ, पासे-ख़ातिरे-याराँ=

प्रियतम के सत्कार का ध्यान, बज़ा=उपयुक्त, बे-नियाज़े=

अनिच्छा, दीदा-ए-बे-ख़्वाब=स्वप्नविहीन आँखें, चाक़े-क़बा=

फटा हुआ वस्त्र, जुज़-दीवारे-मिज़्गाँ=पलकों की दीवार के

अतिरिक्त, सैले-दर्दे-दिल=हृदय की वेदना, साहिले-दरिया-

ए-ख़ूँ=रक्त की नदी का किनारा)

अल्मिया
किस तमन्ना से ये चाहा था कि इक रोज़ तुझे

साथ अपने लिए उस शहर को जाऊँगा जिसे

मुझको छोड़े हुए,भूले हुए इक उम्र हुई

हाय वो शहर कि जो मेरा वतन है फिर भी

उसकी मानूस फ़ज़ाओं से रहा बेग़ाना

मेरा दिल मेरे ख़्यालों की तरह दीवाना

आज हालात का ये तंज़े-जिगरसोज़ तो देख

तू मिरे शह्र के इक हुजल-ए-ज़र्रीं में मकीं

और मैं परदेस में जाँदाद-ए-यक-नाने-जवीं

(अल्मिया=त्रासदी, मानूस=परिचित, फ़ज़ाओं=

वातावरण, तंज़े-जिगरसोज़=सीने को छलनी कर

देने वाला उलाहना, हुजल-ए-ज़र्रीं=सोने की सेज,

मकीं=निवासी, जाँदाद-ए-यक-नाने-जवीं=जौ की

एक रोटी को तरसता)

जब तेरी याद के जुगनू चमके
जब तेरी याद के जुगनू चमके

देर तक आँख में आँसू चमके

सख़्त तारीक है दिल की दुनिया

ऐसे आलम में अगर तू चमके

हमने देखा सरे-बाज़ारे-वफ़ा

कभी मोती कभी आँसू चमके

शर्त है शिद्दते-अहसासे-जमाल

रंग तो रंग है ख़ुशबू चमके

आँख मजबूर-ए-तमाशा है ‘फ़राज़’

एक सूरत है कि हरसू चमके

(सख़्त तारीक=घनी अँधेरी, आलम=

ऐसी दशा में, शिद्दते-अहसासे-जमाल=

सौंदर्य की तीव्रता, मजबूर-ए-तमाशा=

तमाशे के लिए विवश, हरसू=हर तरफ़)

मम्दूह
मैंने कब की है तिरे काकुलो-लब की तारीफ़

मैंने कब लिक्खे क़सीदे तिरे रुख़सारों के

मैंने कब तेरे सरापा की हिक़ायात कहीं

मैं ने कब शेर कहे झूमते गुलज़ारों के

जाने दो दिन की महब्बत में में ये बहके हुए लोग

कैसे अफ़साने बना लेते है दाराओं के

मैं कि शायर था मेरे फ़न की रवायत थी यही

मुझको इक फूल नज़र आए तो तो गुलज़ार कहूँ

मुस्कुराती हुई हर आँख को क़ातिल जानूँ

हर निगाहे-ग़लतअन्दाज़ को तलवार कहूँ

मेरी फ़ितरत थी कि मैं हुस्ने-बयाँ की ख़ातिर

हर हसीं लफ़्ज़ को दर-मदहे-रुख़े-यार कहूँ

मेरे दिल में भी खिले हैं तेरी चाहत के कँवल

ऐसी चाहत कि जो वहशी हो तो क्या-क्या न करे

मुझे गर हो भी तो क्या ज़ोमे-तवाफ़े-शो’ला

तू है वो शम्अ कि पत्थर की भी परवा न करे

मैं नहीं कहता कि तुझ-सा है न मुझ-सा कोई

वरना शोरीदगी-ए-शौक़ तू दीवाना करे

(मम्दूह=प्रशंसित, काकुलो-लब=बाल व होंठ,

क़सीदे=प्रशंसा, रुख़सार=गाल, सरापा=सिर से

पाँव तक, हिक़ायात=कथा, दाराओं=वीरों,

दर-मदहे-रुख़े-यार=प्रेयसी के चेहरे की प्रशंसा,

ज़ोमे-तवाफ़े-शो’ला=अंगारों की परिक्रमा का

गर्व, शोरीदगी=पागलपन)

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें

जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती

ये ख़ज़ाने तुझे मुम्किन है ख़राबों में मिलें

तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा

दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो

नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें

आज हम दार पे खेंचे गये जिन बातों पर

क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें

अब न वो मैं हूँ न तू है न वो माज़ी है “फ़राज़”

जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें

(हिजाबों=पर्दों, दार=सूली, निसाबों=पाठ्यक्रमों में,

माज़ी=अतीत, सराबों=मृगतृष्णा)

अच्छा था अगर ज़ख़्म न भरते कोई दिन और
अच्छा था अगर ज़ख़्म न भरते कोई दिन और

इस कू-ए- मलामत में गुज़रते कोई दिन और

रातों को तेरी याद के ख़ुर्शीद उभरते

आँखों में सितारे-से उतरते कोई दिन और

हमने तुझे देखा तो किसी को भी न देखा

ऐ काश! तिरे बाद गुज़रते कोई दिन और

राहत थी बहुत रंज में हम ग़म-तलबों को

तुम और बिगड़ते तो सँवरते कोई दिन और

गो तर्के-तआल्लुक़ था मगर जाँ प’ बनी थी

मरते जो तुझे याद न करते कोई दिन और

उस शहरे-तमन्ना से ‘फ़राज़’ आए ही क्यों थे

ये हाल अगर था तो ठहरते कोई दिन और

(कू-ए- मलामत=निंदा के नगर, ख़ुर्शीद=सूर्य,

राहत=आराम, ग़म-तलबों=दु:ख चाहने वालों,

गो=यद्यपि, तर्के-तआल्लुक़=संबंध विच्छेद,

शहरे-तमन्ना=इच्छाओं का नगर)

तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझको
तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को

कि ख़ुद जुदा है तो मुझसे न कर जुदा मुझको

वो कँपकपाते हुए होंठ मेरे शाने पर

वो ख़्वाब साँप की मानिंद डस गया मुझको

चटक उठा हूँ सुलगती चटान की सूरत

पुकार अब तो मिरे देर-आश्ना मुझको

तुझे तराश के मैं सख़्त मुनफ़इल हूँ कि लोग

तुझे सनम तो समझने लगे ख़ुदा मुझको

ये और बात कि अक्सर दमक उठा चेहरा

कभी-कभी यही शोला बुझा गया मुझको

ये क़ुर्बतें ही तो वज्हे-फ़िराक़ ठहरी हैं

बहुत अज़ीज़ है याराने-बेवफ़ा मुझको

सितम तो ये है कि ज़ालिम सुख़न-शनास नहीं

वो एक शख़्स कि शाइर बना गया मुझको

उसे ‘फ़राज़’ अगर दुख न था बिछड़ने का

तो क्यों वो दूर तलक देखता रहा मुझको

(शाने=काँधे, मानिंद=भाँति, देर-आश्ना=

चिर-परिचित, मुनफ़इल=लज्जित, सनम=

प्रतिमा, क़ुर्बतें=नज़दीकियाँ, वज्हे-फ़िराक़=

विरह का कारण, सुख़न-शनास=बात समझने

वाला, शख़्स=व्यक्ति)

किसी तरह तो बयाँ हर्फ़े आरज़ू करते
किसी तरह तो बयाँ हर्फ़े-आरज़ू करते

जो लब मिले थे तो आँखों से गुफ़्तगू करते

बस एक नारा-ए-मस्ताँ दरीदा-पैरहनो

कहाँ के तोक़ो-सिलासिल बस एक हू करते

कभी तो हम से भी ऐ साकिनाने-शहरे-ख़याल

थके-थके हुए लहजे में गुफ़्तगू करते

गुलों-से जिस्म थे शाख़े-सलीब पर लरज़ाँ

तो किस नज़र से तमाशा-ए-रंगो-बू करते

बहुत दिनों से है बे-आब चश्मे-ख़ूँ-बस्ता

वगरना हम भी चराग़ाँ किनारे जू करते

ये क़ुर्ब मर्गे-वफ़ा है अगर ख़बर होती

तो हम भी तुझसे बिछड़ने की आरज़ू करते

चमन-परस्त न होते तो ऐ नसीमे-बहार

मिसाले-बर्गे-ख़िज़ाँ तेरी जुस्तजू करते

हज़ार कोस पे तू और ये शाम ग़ुर्बत की

अजीब हाल था पर किससे गुफ़्तगू करते

‘फ़राज़’ मिस्र-ए-आतिश पे क्या ग़ज़ल करते

ज़बाने-ग़ैर से क्या शरहे-आरज़ू करते

(हर्फ़े-आरज़ू=मनोकामना, नारा-ए-मस्ताँ=मस्तों

का नारा, दरीदा-पैरहनो=फटे-हाल वालो, तोक़ो-=

सिलासिल=बेड़ियों की जकड़, शाख़े-सलीब=सूली

जैसी टहनी, तमाशा-ए-रंगो-बू=रंग व गंध का

खेल, बे-आब=सूखी हुई, चश्मे-ख़ूँ-बस्ता=क्रुद्ध-नेत्र,

जू=नदी, क़ुर्ब=सामीप्य, मर्ग=मृत्यु, नसीमे-बहार=

बसंती हवा, मिसाले-बर्गे-ख़िज़ाँ=पतझड़ के पत्ते

की भाँति, जुस्तजू=तलाश,चाहत, मिस्र-ए-आतिश=

परदेस, ज़बाने-ग़ैर=दूसरे की भाषा, शरहे-आरज़ू=

मनो-कामना की अभिव्यक्ति)

मैं और तू
रोज़ जब धूप पहाड़ों से उतरने लगती

कोई घटता हुआ बढ़ता हुआ बेकल साया

एक दीवार से कहता कि मेरे साथ चलो

और ज़ंजीरे-रफ़ाक़त से गुरेज़ाँ दीवार

अपने पिंदार के नश्शे में सदा ऐस्तादा

ख़्वाहिशे-हमदमे-देरीना प’ हँस देती थी

कौन दीवार किसी साए के हमराह चली

कौन दीवार हमेशा मगर ऐस्त्तादा रही

वक़्त दीवार का साथी है न साए का रफ़ीक़

और अब संगो-गुलो-ख़िश्त के मल्बे के तले

उसी दीवार का पिंदार है रेज़ा-रेज़ा

धूप निकली है मगर जाने कहाँ है साया

(बेकल=बेचैन, ज़ंजीरे-रफ़ाक़त=मित्रता की

बेड़ी, गुरेज़ाँ=भागती हुई, पिंदार=अभिमान,

ऐस्तादा=सीधी खड़ी हुई, ख़्वाहिशे-हमदमे-

देरीना=पुराने मित्र की इच्छा, रफ़ीक़=मित्र,

संगो-गुलो-ख़िश्त=पत्थर फूल तथा ईंट,

रेज़ा-रेज़ा=टुकड़े-टुकड़े)

अफ़्रेशियाई अदीबों के नाम
जहाने-लोहो-क़लम के मुसाफ़िराने-जलील

हम अहले-दश्ते-पेशावर सलाम कहते हैं

दिलों का क़ुर्ब कहीं फ़ासिलों से मिटता है

ये हर्फ़े-शौक़ बसद-अहतराम कहते हैं

हज़ार लफ़्ज़ो-बयानो-ज़बाँ का फ़र्क़ सही

मगर हदीसे-वफ़ा हम तमाम कहते हैं

वो माओ हो कि लमुम्बा , सुकार्नो हो कि फ़ैज़

सभी के लोहो-क़लम अज़्मते-बशर के नक़ीब

सब एक दर्द के रिश्ते के मुंसलिक बिस्मिल

सभी हैं दूर नज़र से सभी दिलों के क़रीब

जकार्तो-सरनदीप से पेशावर तक

सभी का एक ही नारा सभी की एक सलीब

हमें ये सोचना होगा कि ज़िन्दगी अपनी

फ़ज़ा-ए-दहर में क्यों मौत से भी सस्ती है

हम अहले-शिर्क़ हैं सूरज तराशने वाले

मगर हमारी ज़मीं नूर को तरसती है

ये क्या कि जो भी घटा दश्त से हमारे उठे

वो दूर-पार समन्दर पे जा बरसती है

ज़मीं से अब नहीं उतरेगा कोई पैग़म्बर

जहाने-आदमो-हव्वा सँवारने के लिए

यहाँ मुहम्मदो-गौतम मसीहो-कन्फ़्यूशिस

जला चुके हैं बहुत आगही-फ़रोज़ाँ दिए

मगर है आज भी अपना नसीब तारीकी

मगर है आज भी मश्रिक शबे-दराज़ लिए

हमीं को तोड़ने होंगे सनम क़दामत के

हमीं को अब नया इन्सान ढालना होगा

हमीं को अपने क़लम की सितारासाज़ी से

हर एक ख़ित्ता-ए-तीरा उजालना होगा

हमीं को अम्न के गीतों से, मीठे बोलों से

मुहीब जंग की आँधी को टालना होगा

(अदीब=साहित्यकार, मुसाफ़िराने-जलील=पूज्य

महान मुसाफ़िरो, अहले-दश्ते-पेशावर=पेशावरवासी,

क़ुर्ब=सामीप्य, हर्फ़े-शौक़=लगन के स्वर, बसद-

अहतराम=नमस्कार, हदीसे-वफ़ा=वफ़ादारी के

नियम, अज़्मते-बशर=मानव-गरिमा, नक़ीब=

चोबदार, मुंसलिक=जुड़े हुए, बिस्मिल=घायल,

फ़ज़ा-ए-दहर=सांसरिक वातावरण, अहले-शिर्क़=

पूर्व वासी, दश्त=जंगल, आगही-फ़रोज़ाँ दिए=

भविष्य में भी प्रकाशित रहने वाले दीपक,

तारीकी=अन्धेरा, मश्रिक=पूर्व, शबे-दराज़=लंबी

रात, क़दामत=प्राचीनता, सितारासाज़ी=चमक,

ख़ित्ता-ए-तीरा=अँधेरा भाग, मुहीब=भयानक)

मैं कि पुरशोर समन्दर थे मेरे पाँवों में
मैं कि पुरशोर समन्दर थे मेरे पाँओं में

अब के डूबा हूँ तो सूखे हुए दरियाओं में

ना-मुरादी का ये आलम है कि अब याद नहीं

तू भी शामिल था कभी मेरी तमन्नाओं में

दिन के ढलते ही उजड़ जाती हैं आँखें ऐसे

जिस तरह शाम को बाज़ार किसी गाँओं में

चाके-दिल सी कि न सी, ज़ख़्म की तौहीन न कर !

ऐसे क़ातिल तो न थे मेरे मसीहाओं में

ज़िक़्र उस ग़ैरते-मरियम का जब आता है ‘फ़राज़’

घंटियाँ बजती हैं लफ़्ज़ों के कलीसाओं में

(चाके-दिल=दिल का घाव, तौहीन=अपमान,

ग़ैरते-मरियम=मरियम की लाज (ईसामसीह

की माँ), कलीसाओं=गिरजाघरों)

ये तो जब मुम्किन है
फिर चले आए हैं हमदम ले के हमदर्दी के नाम

आहू-ए-रम-ख़ुर्दा की वहशत बढ़ाने के लिए

मेरे दिल से तेरी चाहत को मिटाने लिए

छेड़कर अफ़साना-ए-नाकामी-ए-अहले-वफ़ा

तेरी मजबूरी के क़िस्से मेरी बरबादी की बात

अपनी-अपनी सरगुज़िश्तें दूसरों के तजरिबात

उनको क्या मालूम लेकिन तेरी चाहत के करम

मेरी तन्हाई के दोज़ख़ मेरी जन्नत के भरम

तेरी आँखों का वफ़ा-आमेज़ अफ़सुर्दा-ख़याल

काश! इतना सोच सकते ग़मगुसारों के दिमाग़

ये तो जब मुम्किन है बुझ जाए हर आँसू हर चराग़

ख़ुद को उनमें दफ़्न कर दूँ भूल जाऊँ अपना नाम

(आहू-ए-रम-ख़ुर्दा=बिदका हुआ हिरण, वहशत=भय,बिदक,

सरगुज़िश्तें=घटनाएँ, तजरिबात=अनुभव, वफ़ा-आमेज़=

वफ़ादारी से परिपूर्ण, अफ़सुर्दा-ख़याल=दु:खी विचार)

तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तो
तुम भी ख़फा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तो

अ़ब हो चला यकीं के बुरे हम हैं दोस्तो

किसको हमारे हाल से निस्बत हैं क्या करे

आखें तो दुश्मनों की भी पुरनम हैं दोस्तो

अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे

अपनी तलाश में तो हम ही हम हैं दोस्तो

कुछ आज शाम ही से हैं दिल भी बुझा बुझा

कुछ शहर के चराग भी मद्धम हैं दोस्तो

इस शहरे आरज़ू से भी बाहर निकल चलो

अ़ब दिल की रौनकें भी कोई दम हैं दोस्तो

सब कुछ सही “फ़राज़” पर इतना ज़रूर हैं

दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं दोस्तो

ज़िंदगी ! ऐ ज़िंदगी
मैं भी चुप हो जाऊँगा बुझती हुई शम्ओं के साथ

और कुछ लम्हे ठहर ! ऐ ज़िंदगी ! ऐ ज़िंदगी !

जब तलक रोशन हैं आँखों के फ़सुर्दा ताक़चे

नील-गूँ होंठों से फूटेगी सदा की रोशनी

जिस्म की गिरती हुई दीवार को थामे हुए

मोम के बुत आतिशी चेहरे, सुलगती मूरतें

मेरी बीनाई की ये मख़्लूक़ ज़िन्दा है अभी

और कुछ लम्हे ठहर ! ऐ ज़िंदगी !

हो तो जाने दे मिरे लफ़्ज़ों को मा’नी से तही

मेरी तहरीरें, धुएँ की रेंगती परछाइयाँ

जिनके पैकर अपनी आवाज़ों से ख़ाली बे-लहू

मह्व हो जाने तो दे यादों से ख़्वाबों की तरह

रुक तो जाएँ आख़िरी साँसों की वहशी आँधियाँ

फिर हटा लेना मिरे माथे से तू भी अपना साथ

मैं भी चुप हो जाऊँगा बुझती हुई शम्ओं के साथ

और कुछ लम्हे ठहर ! ऐ ज़िंदगी !

(फ़सुर्दा=उदास, ताक़चे=दीवार में बने आले(ताक़),

नील-गूँ=नीले रंग के,विषयुक्त, बीनाई=दृष्टि, मख़्लूक़=

तही=रिक्त, पैकर=आकृति, मह्व=तल्लीन, वहशी=

जंगली)

चन्द लम्हों के लिए तूने मसीहाई की
चन्द लम्हों के लिए तूने मसीहाई की

फिर वही मैं हूँ वही उम्र है तन्हाई की

किस पे गु़ज़री न शबे-हिज्र क़यामात की तरह

फ़र्क़ इतना है कि हमने सुख़न-आराई की

अपनी बाहों में सिमट आई है वो क़ौसे-क़ुज़:

लोग तस्वीर ही खींचा किए अँगड़ाई की

ग़ैरते-इश्क़ बजा तान-ए-याराँ तस्लीम

बात करते हैं मगर सब उसी हरजाई की

उनको भूले हैं तो कुछ और परेशाँ हैं ‘फ़राज़’

अपनी दानिस्त में दिल ने बड़ी दानाई की

(मसीहाई=इलाज, शबे-हिज्र=विरह की रात,

सुख़न-आराई=काव्य-रचना, क़ौसे-क़ुज़:=इंद्र-धनुष,

तान-ए-याराँ=मित्रों के कटाक्ष, तस्लीम=स्वीकार्य,

दानिस्त=समझदारी)

उतरी थी शहरे-गुल में कोई आतिशी किरन
उतरी थी शहरे-गुल में कोई आतिशी किरन

वो रोशनी हुई कि सुलगने लगे बदन

ग़ारतगरे-चमन से अक़ीदत थी किस क़दर

शाख़ों ने ख़ुद उतार लिए अपने पैरहन

इस इन्तहा-ए-क़ुर्ब ने धुँदला दिया तुझे

कुछ दूर हो कि देख सकूँ तेरा बाँकपन

मैं भी तो खो चला था ज़माने के शोर में

ये इत्तिफ़ाक़ है कि वो याद आ गए म’अन

जिसके तुफ़ैल मुहर-ब-लब हम रहे ‘फ़राज़’

उसके क़सीदा-ख़्वाँ हैं सभी अहले-अंजुमन

(शहरे-गुल=फूलों के नगर, ग़ारतगरे-चमन=उद्यान को

हानि पहुँचाने वाले, अक़ीदत=श्रद्धा, पैरहन=वस्त्र,

इन्तहा-ए-क़ुर्ब=अत्याधिक निकटता, इत्तिफ़ाक़=संयोग,

म’अन=फ़ौरन, तुफ़ैल=कारण, मुहर-ब-लब=होंठ सिले

हुए, क़सीदा-ख़्वाँ=प्रशंसक, अहले-अंजुमन=सभा वाले)

कोई भटकता बादल
दूर इक शहर में जब कोई भटकता बादल

मेरी जलती हुई बस्ती की तरफ़ जाएगा

कितनी हसरत से उसे देखेंगी प्यासी आँखें

और वो वक़्त की मानिंद गुज़र जाएगा

जाने किस सोच में खो जाएगी दिल की दुनिया

जाने क्या-क्या मुझे बीता हुआ याद आएगा

और उस शह्र का बे-फैज़ भटकता बादल

दर्द की आग को फैला के चला जाएगा

(हसरत=लालसा, मानिंद=भाँति, बे-फैज़=

कंजूस)

करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे

ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे

वो ख़ार-ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिन्द

मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे

ये लोग तज़्क़िरे करते हैं अपने लोगों के

मैं कैसे बात करूँ और कहाँ से लाऊँ उसे

मगर वो ज़ूदफ़रामोश ज़ूद-रंज भी है

कि रूठ जाये अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे

वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ

तुम्हारी बात पे ऐ नासिहो गँवाऊँ उसे

जो हमसफ़र सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है “फ़राज़”

अजब नहीं कि अगर याद भी न आऊँ उसे

(ख़ार-ख़ार=कँटीला, मानिन्द=भाँति, तज़्क़िरे=चर्चाएँ,

ज़ूदफ़रामोश=भुलक्कड़, ज़ूद-रंज=शीघ्र बुरा मान जाने

वाला, राहत-ए-जाँ=जीवन का सुख, नासिहो=उपदेशको,

सर-ए-मंज़िल=गंतव्यस्थल पर)

किसी के तज़्क़िरे बस्ती में कू-ब-कू जो हुए
किसी के तज़्किरे बस्ती में कू-ब-कू जो हुए

हमीं ख़मोश थे मौज़ू-ए-गुफ़्तगू जो हुए

न दिल का दर्द ही कम है न आँख ही नम है

न जाने कौन-से अरमाँ थे वो लहू जो हुए

नज़र उठा तो गुमगश्ता-ए-तहय्युर थे

हम आइने की तरह तेरे रू-ब-रू जो हुए

हमीं हैं वादा-ए-फ़र्दा प’ टालने वाले

हमीं ने बात बदल दी बहाना-जू जो हुए

‘फ़राज़’ हो कि वो ‘फ़रहाद’ हो कि हो मंसूर

उन्हीं का नाम है नाकामे-आरज़ू जो हुए

(तज़्किरे=चर्चे, कू-ब-कू=जगह-जगह, मौज़ू-ए-

गुफ़्तगू=चर्चा के विषय, गुमगश्ता-ए-तहय्युर=

अचंभे में गुम, रू-ब-रू=आमने-सामने, वादा-ए-

फ़र्दा=कल मिलने का वचन, बहाना-जू=रोज़

नए बहाने बनाने वाले)

तू पास भी हो तो दिल बेक़रार अपना है
तू पास भी हो तो दिल बेक़रार अपना है

के हमको तेरा नहीं इंतज़ार अपना है

मिले कोई भी तेरा ज़िक्र छेड़ देते हैं

के जैसे सारा जहाँ राज़दार अपना है

वो दूर हो तो बजा तर्क-ए-दोस्ती का ख़याल

वो सामने हो तो कब इख़्तियार अपना है

ज़माने भर के दुखों को लगा लिया दिल से

इस आसरे पे के इक ग़मगुसार अपना है

“फ़राज़” राहत-ए-जाँ भी वही है क्या कीजे

वो जिस के हाथ से सीनाफ़िग़ार अपना है

. तिर्याक़

जब तिरी उदास अँखड़ियों से

पल-भर को चमक उठे थे आँसू

क्या-क्या न गुज़र गई थी दिल पर!

अब मेरे किए मलूल थी तू

कहने को वो ज़िंदगी का लम्हा

पैमाने-वफ़ा से कम नहीं था

माज़ी की तवील तल्ख़ियों का!

जैसे मुझे कोई ग़म नहीं था

तू! मेरे लिए ! उदास इतनी

क्या था ये अगर करम नहीं था

तू आज भी मेरे सामने है

आँखों में उदासियाँ न आँसू

एक तंज़ है तेरी हर अदा में

चुभती है तिरे बदन की ख़ुश्बू

या अब मेरा ज़ह्रपी चुकी तू

(तिर्याक़=विषहर, मलूल=चिंतित,

पैमाने-वफ़ा=वफ़ादारी के वचन,

माज़ी=अतीत, तवील=लंबी,तल्ख़ियों=

कड़वाहटों, करम=कृपा, तंज़=व्यंग्य)

फिर भी तू इंतज़ार कर शायद
फिर उसी राहगुज़र पर शायद

हम कभी मिल सकें मगर शायद

जिनके हम मुंतज़िर रहे उनको

मिल गए और हमसफ़र शायद

जान पहचान से भी क्या होगा

फिर भी ऐ दोस्त ग़ौर कर ! शायद

अजनबीयत की धुंध छँट जाए

चमक उठ्ठे तिरी नज़र शायद

ज़िन्दगी भर लहू रुलाएगी

यादे-याराने-बेख़बर शायद

जो भी बिछड़े वो कब मिले हैं ‘फ़राज़’

फिर भी तू इंतज़ार कर शायद

(मुंतज़िर=प्रतीक्षारत)

अब वो झोंके कहाँ सबा जैसे
अब वो झोंके कहाँ सबा जैसे

आग है शह्र की हवा जैसे

शब सुलगती है दोपहर की तरह

चाँद, सूरज से जल-बुझा जैसे

मुद्दतों बाद भी ये आलम है

आज ही तू जुदा हुआ जैसे

इस तरह मंज़िलों से हूँ महरूम

मैं शरीक़े-सफ़र न था जैसे

अब भी वैसी है दूरी-ए-मंज़िल

साथ चलता हो रास्ता जैसे

इत्तिफ़ाक़न भी ज़िंदगी में ‘फ़राज़’

दोस्त मिलते नहीं ‘ज़िया’ जैसे

(सबा=हवा, शब=रात्रि, आलम=दशा,

महरूम=वंचित, शरीक़े-सफ़र=यात्रा

का साथी, इत्तिफ़ाक़न=अकस्मात्,

ज़िया=प्रकाश,‘फ़राज़’ ने अपने मित्र

जियाउद्दीन ‘ज़िया’ के किए संकेत

किया है)

अफ़ई की तरह डसने लगी मौजे-नफ़स भी
अफ़ई की तरह डसने लगी मौजे-नफ़स भी

ऐ ज़ह्रे-ग़मे-यार बहुत हो चुकी बस भी

ये हब्स तो जलती हुई रुत में भी गराँ है

ऐ ठहरे हुए अब्रे-क़रम अब तो बरस भी

आईने-ख़राबात मुअत्तल है तो कुछ रोज़

ऐ रिन्दे-बलानोशो-तही-जाम तरस भी

सय्यादो-निगहबाने-चमन पर है ये रौशन

आबाद हमीं से है नशे-मन भी क़फ़स भी

महरूमी-ए-जावेद गुनहगार न कर दे

बढ़ जाती है कुछ ज़ब्ते-मुसलसल से हवस भी

(अफ़ई=काला साँप, मौजे-नफ़स=साँसों की गति,

हब्स=घुटन, गराँ=भारी, अब्रे-क़रम=कृपा रूपी

बादल, आईने-ख़राबात=मधुशाला के नियम,

रिन्दे-बलानोशो-तही-जाम=अधिक मद्यपान

करने वाले ख़ाली पात्र, सय्यादो-निगहबाने-

चमन=उद्यान के शिकारी और संरक्षक,

नशे-मन=उद्यान, क़फ़स=कारागार, महरूमी-

ए-जावेद=नित्य की वंचितता, ज़ब्ते-मुसलसल=

लगातार सहन, हवस=उत्कंठा)

बेसरो-सामाँ थे लेकिन इतना अन्दाज़ा न था
बेसरो-सामाँ थे लेकिन इतना अन्दाज़ा न था

इससे पहले शहर के लुटने का आवाज़ा न था

ज़र्फ़े-दिल देखा तो आँखें कर्ब से पथरा गयीं

ख़ून रोने की तमन्ना का ये ख़मियाज़ा न था

आ मेरे पहलू में आ ऐ रौनके-बज़्मे-ख़याल

लज्ज़ते-रुख़्सारो-लब का अब तक अन्दाजा न था

हमने देखा है ख़िजाँ में भी तेरी आमद के बाद

कौन सा गुल था कि गुलशन में तरो-ताज़ा न था

हम क़सीदा ख़्वाँ नहीं उस हुस्न के लेकिन ‘फ़राज़’

इतना कहते हैं रहीने-सुर्मा-ओ-ग़ाज़ा न था

(बेसरो-सामाँ=ज़िन्दगी के ज़रूरी सामान के बिना,

ज़र्फ़े-दिल=दिल की सहनशीलता, कर्ब=दुख,बेचैनी,

ख़मियाज़ा=करनी का फल, बज़्म=सभा, ख़िजाँ=

पतझड़, क़सीदा ख़्वाँ=प्रशस्ति-गायक, रहीने-सुर्मा-

ओ-ग़ाज़ा=सुर्मे और लाली पर निर्भर)

मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं
मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं

लाख समझाया कि उस महफ़िल में अब जाना नहीं

ख़ुदफ़रेबी ही सही, क्या कीजिए दिल का इलाज

तू नज़र फेरे तो हम समझें कि पहचाना नहीं

एक दुनिया मुंतज़िर है …और तेरी बज़्म में

इस तरह बैठें हैं हम जैसे कहीं जाना नहीं

जी में जो आती आता है कर गुज़रो कहीं ऐसा न हो

कल पशेमाँ हों कि क्यों दिल का कहा माना नहीं

ज़िन्दगी पर इससे बढ़कर तंज़ क्या होगा ‘फ़राज़’

उसका ये कहना कि तू शायर है, दीवाना नहीं

(महरूमियों=नाकामी, बज़्म=महफ़िल,

पशेमाँ=शर्मिंदा)

जिससे ये तबियत बड़ी मुश्किल से लगी थी
जिससे ये तबियत बड़ी मुश्किल से लगी थी

देखा तो वो तस्वीर हर एक दिल से लगी थी

तनहाई में रोते हैं कि यूँ दिल को सुकूँ हो

ये चोट किसी साहिबे-महफ़िल से लगी थी

ऐ दिल तेरे आशोब ने फिर हश्र जगाया

बे-दर्द अभी आँख भी मुश्किल से लगी थी

ख़िलक़त का अजब हाल था उस कू-ए-सितम में

साये की तरह दामने-क़ातिल से लगी थी

उतरा भी तो कब दर्द का चढ़ता हुआ दरिया

जब कश्ती-ए-जाँ मौत के साहिल से लगी थी

(आशोब=हलचल,उपद्रव, हश्र=प्रलय,मुसीबत,

ख़िलक़त=जनता, कू-ए-सितम=अत्याचार की

गली, दामने-क़ातिल=हत्यारे के पल्लू, साहिल=

किनारा)

मुन्तज़िर कब से तहय्युर है तेरी तक़रीर का
मुन्तज़िर कब से तहय्युर है तेरी तक़रीर का

बात कर तुझ पर गुमाँ होने लगा तस्वीर का

रात क्या सोये कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई

ख़्वाब क्या देखा कि धड़का लग गया ताबीर का

कैसे पाया था तुझे फिर किस तरह खोया तुझे

मुझ सा मुनकिर भी तो क़ाइल हो गया तक़दीर का

जिस तरह बादल का साया प्यास भड़काता रहे

मैं ने ये आलम भी देखा है तेरी तस्वीर का

जाने किस आलम में तू बिछड़ा है कि तेरे बग़ैर

आज तक हर नक़्श फ़रियादी मेरी तहरीर का

इश्क़ में सर फोड़ना भी क्या के ये बे-मेहेर लोग

जू-ए-ख़ूँ को नाम देते हैं जू-ए-शीर का

जिसको भी चाहा उसे शिद्दत से चाहा है “फ़राज़”

सिलसिला टूटा नहीं दर्द की ज़ंजीर का

दिल भी बुझा हो शाम की परछाइयाँ भी हों
दिल भी बुझा हो शाम की परछाइयाँ भी हों

मर जाइये जो ऐसे में तन्हाइयाँ भी हों

आँखों की सुर्ख़ लहर है मौज-ए-सुपरदगी

ये क्या ज़रूर है के अब अंगड़ाइयाँ भी हों

हर हुस्न-ए-सादा लौ न दिल में उतर सका

कुछ तो मिज़ाज-ए-यार में गहराइयाँ भी हों

दुनिया के तज़किरे तो तबियत ही ले बुझे

बात उस की हो तो फिर सुख़न आराइयाँ भी हों

पहले पहल का इश्क़ अभी याद है “फ़राज़”

दिल ख़ुद ये चाहता है के रुस्वाइयाँ भी हों

पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफ़ा के मुझे

पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफ़ा के मुझे

जिसे क़रार न आया कहीं भुला के मुझे

जुदाइयाँ हों तो ऐसी कि उम्र भर न मिलें

फ़रेब दो तो ज़रा सिलसिले बढ़ा के मुझे

नशे से कम तो नहीं याद-ए-यार का आलम

कि ले उड़ा है कोई दोश पर हवा के मुझे

मैं ख़ुद को भूल चुका था मगर जहॉ वाले

उदास छोड़ गए आईना दिखा के मुझे

तुम्हारे बाम से अब कम नहीं है रिफ़अत-ए-दार

जो देखना हो तो देखो नजर उठा के मुझे

खिंची हुई है मिरे आंसुओं में इक तस्वीर

‘फ़राज़’ देख रहा है वो मुस्कुरा के मुझे

अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएं हम
अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएं हम

ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाएं हम

सहरा-ए-ज़िन्दगी में कोई दूसरा न था

सुनते रहे हैं आप ही अपनी सदाएं हम

इस ज़िन्दगी में इतनी फ़राग़त किसे नसीब

इतना न याद आ कि तुझे भूल जाएं हम

तू इतनी दिल-ज़दा तो न थी ऐ शब-ए-फ़िराक

आ तेरे रास्ते में सितारे लुटाएं हम

वो लोग अब कहां हैं जो कहते थे कल ‘फ़राज़’

है है ख़ुदा-न-कर्दा तुझे भी रुलाएं हम